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अनेकान्त
है । हम पिण्डम्थ ध्यान में हम देखते हैं कि योगीअपने चारों (१) धर्मध्यान चार प्रकार का है ३ । (क) प्राग विचय मोर एक ऐसे वातावरण का निर्माण करता है जो सारिक (ख) अपाय विचय, (ग) विपाक विचय, और (घ संम्यान विषय वासनाओं से कोसों दूर है। मन के ऊपर धारणाओं विचय, पूज्यपाद ४ ने सर्वामिति में इनका विशद विवेचन की कई तहैं जम जाती हैं जहां से मन अपने अनादि स्थित किया है । (क) उपदेश देने वाले का प्रभाव होने से, स्वयं
संस्कारों को छेदने में समर्थ होता है। (२)दूसरे पदस्थ मन्दबुद्धि होने में, कर्मों का उदय होने से, पदार्थो के सक्षम ध्यान में योगी पवित्र पदों का अवलंबन लेकर चितवन करते होने पर सर्वज्ञप्रणीत प्रागम को प्रमाण मानना आज्ञा हैं, जैसे-श्रोम्, अरिहन्त आदि । शुभचंद्र ने मंत्र पदों की विचय धर्म ध्यान ई। अथवा जो स्वयं पदार्थो क रहस्य को बड़े ही विस्तार से व्याख्या की है । (३) रूपन्थ ध्यान जानता है, और उनके प्रतिपादन करने का इच्छक है, उसके में परहन्त के गुणों व प्रगहन्त की शक्तयों का चितवन लिए नय और प्रमाण का चिन्तन करता है, वह मर्वज की किया जाता है जिससे प्राध्यत्मिक प्रेरणा प्राप्त होती है। श्राज्ञा को प्रकाशित करने वाला होने से प्राज्ञा विचय धर्म(५) रूपातीत ध्यान में सिद्धों के स्वरूप पर चिन्तवन किया ध्यान का करने वाला है। (ख) जीवों को सांसरिक दाम्वों जाता है।
से छूटकारे के उपाय का विचार अपाय विचय धर्म-ध्यान
है। मुलाचार में कहा है जीवों के शुभ अशुभ कर्मों का रामसनाचार्य ने ध्यान पति की दृष्टि से ध्येय के ।
नाश कैम हो ऐसा विचारना अपाय विचय धर्मध्यान है" चार भेद किये हैं। (१) नामध्येय, (२) स्थापनाव्येय, (३)
हानार्णवद में इस ध्यान के अन्तर्गत ये विचार भी मम्मिद्रव्य ध्येय और, (५) भाव ध्येय । (१) अरहन्त का नाम लिन हैं। मैं कौन हैं मेरे कर्मों का प्राव को है ? पंच परमेष्ठी वाचक 'ममि. प्रा. उ. मा.' तथा मनोकार कर्मों का बंध क्यों है, किस कारण से निर्जग होता है, मंत्र का ध्यान 'नाम' नामक ध्येय है १०। (२) कृत्रिम मुक्ति क्या वस्तु है, एवं मुक्त होने पर प्रात्मा का क्या
और अकृत्रिम जिन प्रतिमाओं का प्रागम अनुसार ध्यान स्वरूप होता है यहां यह कहा जा सकता है कि प्राज्ञा स्थापना नामक ध्येय है"। (8) जिस प्रकार एक द्रष्य विचय धर्मध्यान व्यक्ति को सत्य का ज्ञान कराना है और एक समय में उत्पाद, व्यय व ध्रौव्य वाला है वैसे ही समस्त अपाय विचय धर्मध्यान सन्य प्राप्ति का मार्ग प्रस्तुत करता बसा हमेशा उत्पाद, न्यय व धाव्य वाले हैं ऐमा चिंतन है। (ग) विपाक विचय धर्मध्यान में कर्मो के फलों का 'द्रव्य नामक ध्येय है १२ । (४) अर्थ तथा व्यंजन पर्याये चिन्तन होता है। (घ) और संस्थान विचय धर्मध्यान में
और मूर्तिक तथा प्रमूर्तिक गुण जिम द्रव्य में जैसे अवस्थित लोक के स्वभाव का व प्रकार का निरन्तर चिन्तन होता हैं उनको उसी रूप में चितवन करना भाव नामक ध्येय है। तत्वानुमाशन में कहा गया है कि (१) सम्यान,
सम्यग्ज्ञान और सम्यग्चारित्र मय धर्म का जो चिंतन है ध्यान का यह उपयुक्त वर्णन प्रागमिक परंपरा से वही धर्मध्यान है। (२) मोह नोभ से रहित जो आत्मा का बाह्य है। प्रागमिक परम्परा के अनुसार धर्म व शुक्ल परिणाम है वह धर्म है। उम धर्म में युक्त जो चिंतन है ध्यान के चार भेद है। सर्व प्रथम हम धर्म ध्यान को लेने वही धर्मध्यान है। (8) वस्तु स्वरूप को धर्म कहते हैं। है। स्थानांग २ सूत्र में धर्म ध्यान का चार दृष्टिकोणों से उस वस्तु म्वरूप से युक्त जो ज्ञान है उसे धर्मध्यान कहा विचार किया गया है। (१) इमका विषय, (२) इसका है। (४) दश धर्म में युक्त जो चिंतन है उसे धर्मध्यान लक्षण, (३) इसका पालम्बन, (४) इसकी अनप्रमाग कहत । कात्तिक्यानुप्रक्षा के अनुसार मकल विकल्पों को
---- छोड़ कर प्रात्म म्वरूप में मन को गंकर प्रानन्द पहिर (१) ज्ञाना० ३७/२८-३० (६) झाना० ३८/1-1६
मा una. (७) ज्ञाना. ३६-१-४६ (८) ज्ञाना० ४.१५.२३ ।
(Tatia, Studies in Jaina Philsophy के (१) तत्वानु. ११ (१.) तस्वानु १०१, १०२ १.३ प्राधार मे २५३ (३) (४) मर्वार्थ• १/३६ (२) मुल'. (११) तत्वानु, १०६ (१२) तत्वानु०११० ४०० (6) ज्ञाना० ३५/११ (०) तत्वानु ५१ १५
(१) तत्वानु. ११६, (२) स्था. स. ११/२४७ (१) कीर्तिः ४८०