SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 247
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २३२ अनेकन्त कहिये बाइ सुजाण जेह व्रत पूरण पाले । श्वेत वस्त्र पेहरंत धर्मध्यान अजुनाले ॥ संयम निर्मल घरत दयाभाव बहु राखे । जिनवर गुण ध्यायत पंचंद्रिय दम शोषे ॥ जाप जप जिनराजको परमरय पद संचरे । बाइ कहावत सो मली ब्रह्म ज्ञान इम उच्चरे ॥७॥ पंच महाव्रत सहित मलगण निर्मल पाले । पड़त पढ़ावत शास्त्र राग द्वषमव टाले । विहरत देश अनेक धर्मध्यान प्रगटावे । करे धर्म उद्योत सकल सज्जन मन भावे ।। क्रिया सकल मनिवर तणी विविध प्रकारे प्राचरे । बस व्रती ते जाणिपे बाह्म ज्ञान इम उच्च रे ।।८।। भट्टारक सोहि जाण भ्रष्टाचार निवारे। धर्म प्रकाशे दोइ भविक जीव बहु तारे ॥ सकल शास्त्र संपूर्ण सूरिमंत्र पाराधे। करे गच्छ उद्धार स्वात्मकार्य बह साधे। सौम्यमति शोभाकरण क्षमाषरण गंभीरमति। भट्टारक सोहि जाणिये कहत ज्ञानसागर पति ॥६॥ श्रावक गुण भंडार श्रावकनी अरु पडित । ब्रह्मचार व्रतधर्म प्राजिका पापविखंडित ॥ पंच महावत धीर वीर चारित्र निधानह । भट्टारक गुणपूर पावत त्रिभुवन मानह ॥ सकल धर्म उद्योतकरण संघाष्टक पावनमति । भावसहित नित सेविये कहत ज्ञानसागर यति ॥१०॥ [पृ० २२६ का शेष] वर-वारि-तुरग-करि-रयणविसयलक्खण विसिट्टिण, एहु समत्थिउ कह वि नियपरियणसाहज्जम्मि । तयणु लिहा विवि पुत्थयह , सइहि सयल सिद्धत । पच्चक्खरगणणाए, सिलोगमाणेण इह पबंधम्मि । पाराहिवि तित्था हिवह चलण जणियजम्मत ।। अट्ठेव यस्सहस्सा, बत्तीस ८०३२ सिलोगया होति ।। समणुमधु वि विविहवत्यहि पडिलाहिवि ज किचि मए अणुचियमुवइट्ठ तुच्छमइविसेसाओ। अप्पु कयकिच्चु करिवि सहम्मकम्मिण । त पसिउ मह सुयणा, सोहतु कयप्पसाय त्ति ।। नियजणणी जणयइ वि धम्महे उ जिणनाहभत्तिण । यस्याहिद्वयनखमणिमयूखसक्रातसुरपतिश्रेणी. । पुह इप्पाल महाइह अब्भत्थणह वसेण । निजलघुतामिव कथयति, वपुषाऽपि जयत्वसौ नेमि ॥ इह हरिभद्दमुणी मरिण, चरिउ र इउ लेसेण ।। यावच्चन्द्रो यावद् दिवाकरो यावदमरगिरिरत्र । यह न तारिसु वयणविन्नाणु न य मत राजति तावज्जीयात् श्रीनेमिजिनेन्द्रचरितमद. ।। ततप्फुरणु जइ वि तह वि पहुभत्ति जोगिण । उद्यल्लक्षण शास्त्रसचयनिधीन् सद्धर्म मुद्रावधीन्, इहु नेमिजिणेसरहचरिउ र इउ मर गुरू पसाइण । सिद्धान्तकसहस्त्रपत्रतरणीन् सद्वादि चूडामणीन् ।। इय इहु भुवण मुहावउणउ सुयणहु सुणहु चरित । तध्विन्यतरून् मनोभववधूवैधव्यदीक्षागुरून्, अहव सयं पि हु ते विवुह, चितामणि सुरवि ।। साहित्यामृतसागरान् मुनिवरान् श्रीचन्द्रसूरीन् स्तुवे ॥ कुमरवालह निवह रज्जम्मि अणहिल्लवाडइ नयरि अनणुमुयणबुड्यणह मगमि । इति श्री चन्द्रसूरिक्रमकमलभसल श्री हरिभद्रसूरि सोलुत्तर बारसई १२१६ कत्तियम्मि तेरसि समागमि विरचित नवभवोपनिबद्ध श्री नेमिनाथ अस्तिणि रिक्खिण सोमदिणि, सुप्पवित्ति लग्गम्मि । चरितं समाप्तम् ॥६॥
SR No.538017
Book TitleAnekant 1964 Book 17 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1964
Total Pages310
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy