SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 248
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जैन संत भ० वीरचन्द्र की साहित्य-सेवा डा० कस्तूरचन्द कासलीवाल, एम. ए. पी-एच डी; जयपुर चौदहवी-पन्द्रहवी शताब्दी से राजस्थानी जैन मन्तो बने थे । यद्यपि इनका मरत गादी से सम्बन्ध था लेकिन ने साहित्य-रचना में विशेष रुचि ली। इन सन्तो के ये राजस्थान के अधिक समीप थे और बागड प्रदेश में प्रमुख थे भट्टारक सकलकीर्ति (मं० १४४३-१४६६), खूब विहार किया करते थे। जिन्होने साहित्य सेवा को विशेष लक्ष्य बनाया। भट्टारक मन्त वीरचन्द्र प्रतिभा सम्पर विद्वान् थे। व्याकरण सकलकीति के पश्चात् बागड एव गुजरात प्रदेश मे जितने एव न्यायशास्त्र के प्रकाड वेत्ता थे। छन्द, अलकार, मगीत भी भट्टारक हए उन्होने मस्कृत एवं हिन्दी मे सैकड़ो शास्त्र में उनकी विशेष गति थी। वे जहाँ जातं अपने कृतियाँ लिखी एव उनके प्रचार में अत्यधिक योग दिया। भक्तो की संख्या बहा लेते एव विरोधिया का सफाया कर इन सन्तो की रचनाएँ राजस्थानी के अधिक ममीप है देते। वाद-विवाद में उनमे जीतना बडे-बडे महारथियो और जिमकी भाषा एवं शैली पर गुजराती का पूरा प्रभाव के लिये भी महज नही था। वे माधु-जीवन को पूरी तरह है। इन मन्तो की माहित्य मेवा का अभी तक उचित निभाने और गहस्थों को मय मिन जीवन रखने का उपदेश मूल्याकन नहीं हो सका है। इसलिए इस पोर विशेप खोज देते । एक भट्टारक पदावली में उनका निम्नप्रकार परिचय की आवश्यकता है। कुछ विद्वानो की इतनी अधिक दिया जाता है.माहित्य मेवा है कि उस पर एक-एक शोध-प्रबन्ध लिग्वा "तद्व शमण्डन-कदपंदपंदलन विश्वलोक हृदयजन जा सकता है और ऐसे विद्वानो में भ. मकलकीति, ब्रह्म महाव्रतीपुरन्दगणा नवमहसप्रमुखदेशाधिप महाराजाधिराज जिनदाम, भ० शुभचन्द्र, भ. कुमुदचन्द, रत्नकीति, मोम- महाराज श्री अर्जुनजीवराज सभामध्यप्राप्तमन्मानाना कीति एव भ वीरचन्द प्रादि है । इन्होने माहित्य-सेवा के षोडशवर्षपर्यन्तशाकपाकपववालशास्त्रोदनादिपि प्रभृति अतिरिक्त भारतीय पुरातत्त्व की बहुत सेवा की। प्रस्तुत मरमाहार पग्विजिताना दुर्वाग्विादिम गपवंतीचीकरण लेख में भट्टारक वीरचन्द की माहित्य-सेवा पर प्रकाश वज्रापमान प्रथमवचनखण्डनपण्डिनाना व्याकरणप्रमयडाला जा रहा है। कमलमार्तण्ड छन्दोलकृतिमार माहित्य-मगीत-मकलतकं ____ भट्टारकीय बलात्कार गण शाग्वा के मस्थापक भट्टा सिद्धान्तागम शास्त्रसमुद्रपारगताना मकलमूलांतर गुणगण रक देवेन्द्र की ति थे जो सन्त शिरोमणि एव भट्रारक पद्म- माणमण्डिताववुधवर श्री वीरचन्द्र भट्टारकाणा.....।" नन्दि के शिप्यो मे से थे। जब देवेन्द्रकीर्ति ने सूरत मे उक्त प्रशस्ति से ज्ञात होता है कि बोरचन्द्र ने नवभट्टारक गादी की स्थापना की थी, उस समय भट्टारक सारी के शामक अर्जुन जीवगज में बहुत मन्मान पाया सकलकीति का राजस्थान एवं गुजगत में जबरदस्त तथा मोलह वर्ष तक नीग्म पाहार का मेवन किया। प्रभाव था । सम्भवत. इसी प्रभाव को कम करने के उद्दश्य बीपचन्द्र की विद्वना का इनके बाद होने वाले कितने ही से देवेन्द्रकीर्ति ने एक नई भट्टारक सस्था को जन्म दिया। विद्वानो ने उल्लेख किया है। भट्टारक शुभचन्द्र ने अपनी भट्टारक देवेन्द्रकीर्ति के पीछे एवं वीरचन्द्र के पहिले तीन कार्तिकेयानुप्रेक्षा की मस्कृत टीका में इनकी प्रशमा में और भट्टारक हुए जिनके नाम है-विद्यानन्दि (मवत् निम्न पद्य लिग्वा है - १४६९-१५३७), मल्लिभूषण (१५४४-५५) और भट्टारक पदाधीशः मूलसंधे विविराः। लक्ष्मीचन्द्र (१५५६-५२) । वीरचन्द्र भट्टारक लक्ष्मीचन्द्र रमा वीरेन्द्र-चिद्रूप-गुरवो हि गणेशिनः ॥1॥ के शिष्य थे और इन्ही की मृत्यु के पश्चात् ये भट्टारक भ. सुमतिकीनिं ने इन्हे वादियो के लिए अजेय स्वी
SR No.538017
Book TitleAnekant 1964 Book 17 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1964
Total Pages310
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy