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________________ २३४ अनेकान्त कार किया है और वादियों रूपी पर्वत के लिए इन्हें वज पहुँचने के पूर्व ही नेमिनाथ एक चौक में बहन से पशुओं को के समान माना है। अपनी प्राकृत पचमग्रह की टीका में घिरा हुआ देखते है और जब उन्हे सारथी द्वारा यह मालूम इनके यश को जीवित रखने के लिए निम्न-पद्य लिखा है- होता है कि वे सभी पशु बरातियों के भोजन के लिए एकत्रित दुर्वार दुर्वाविकपर्वतानां बजायमानो वरवीरचन्द्रः। किये गये है तो उन्हे तत्काल वैराग्य हो जाता है और वे तदन्वये सूरिवरप्रषानो जानावि भूषो गणि गच्छराजः॥ ककरण तोड़कर गिरनार पर चले जाते है। राजुल को इसी तरह भ. वादिचन्द ने अपनी सुभग सुलोचना जब उनके वैराग्य लेने की बात मालूम होती है तो वह चरित में वीरचन्द्र की विद्वत्ता की प्रशसा की है और घार विलाप करती है, बेहोश होकर गिर पड़ता है। वह कहा है कि कौनसा मूर्ख उनके शिष्यत्व को स्वीकार कर स्वय भी अपन सब आभूपणो को उतार कर तपस्वी जीवन विद्वान् नही बन सकता: धारण कर लेती है। रचना के अन्त मे नेमिनाथ के वीरचन्द्रः समाश्रित्य के मुर्खा म विदो भवत् । तपस्वी जीवन का भी अच्छा वर्णन मिलता है। तं (श्रये) त्यक्त सर्वान्न बीप्त्या निजित काञ्चनम् ॥ फाग सरस एवं सुन्दर है। कवि के सभी वर्णन अनूठे इस प्रकार उक्त उद्धरणो से वीरचन्द्र की प्रतिभा, है और उनमे सजीवता एवं काव्यत्व के दर्शन होते है। विद्वत्ता एवं लोकप्रियता का सहज ही मे आभास मिलता नेमिनाथ की सुन्दरता का एक वर्णन देखिए : केलि कमलदल कोमल, सामल वरण शरीर । वीरचन्द्र जबरदस्त साहित्य-मेवी थे। वे सस्कृत, त्रिभुवनपति त्रिभुवन तिलो, नीलो गुण गंभीर ॥ प्राकृत एव हिन्दी गुजराती के पारगत विद्वान थे । यद्यपि माननी मोहन जिनवर, दिन दिन बेह विपत । उनकी अब तक केवल ६ रचनाएं ही उपलब्ध हो सकी है प्रलब प्रताप प्रभाकर, भवहर श्री भगवत ॥८॥ लेकिन वे हो उनकी विद्वत्ता का परिचय देने के लिये लीला ललित नेमीश्वर, अलवेश्वर उवार । पर्याप्त है । इनकी रचनाओ के नाम निम्न प्रकार है महसित पकज पखडी, प्रखंडी रूपि अपार ॥ (१) वीर-विलास फाग (२) जम्बू स्वामी वेलि अति कोमल गल कबल, प्रविमल वाणी विशाल । (३) जिन प्रातरा (४) सीमघर स्वामी गीत (५) अंगि मनोरम निरुपम, मदन.....निवास ॥१०॥ सबोध सत्ताणु (६) चित्त-निरोध कथा। इसी प्रकार राजुल के सौन्दर्य वर्णन को भी कवि के १. वीर-विलास फाग शब्दो मे पढिय :वीर-विलास फाग एक खण्ड-काव्य है जिसमे २२वे कठिन सुपीन पयोषर, मनोहर अति उतंग । तीर्थङ्कर नेमिनाथ के जीवन की एक घटना का वर्णन चंपकवर्णी चन्द्राननी, माननी सोहि सुरंग ॥१७॥ किया गया है। फाग मे १३७ पद्य है। इसकी एक हस्त- हरणी हरावी निज वपगोड, वपणोड साह सुरंग। लिखित प्रति उदयपुर के खण्डेलवाल जैन-मन्दिर के शास्त्र बंत सुपंती दीपंती, सोहंती सिरवेणी बघ ॥१८॥ भण्डार में संगृहीत है, यह प्रति सवत् १६८६ मे भ. कनक केरी जसी पूतली, पातलो पदमनी नारि । वादिचन्द के शिष्य भ. महीचन्द के उपदेश से लिखी गई सतीप शिरोमणि सुन्दरी, भवतरी प्रवनि मझारि ।१९। थी। ब्र. ज्ञानसागर इसके प्रतिलिपिकार थे। ज्ञान विज्ञान विचक्षणी, सुलक्षणी कोमल काय । रचना के प्रारम्भ मे नेमिनाथ के सौन्दर्य एव शक्ति बान सुपात्रह पोखती, पूजती श्री जिनवर पाय ॥२०॥ का वर्णन किया गया है इसके पश्चात् उनकी होने वाली राजमत राजमती रलीयामणी, सोहामणी सुमधुरीय वाणी। पत्नी राजुल की सुन्दरता का वर्णन मिलता है। विवाह अंभरम्भोली भामिनी, स्वामिनी सोहि सुराणी ॥२१॥ के अवसर पर नगर की शोभा दर्शनीय हो जाती है तथा रूपि रंभा सु-तिलोत्तमा, उत्तम मगि माचार । बारात परणितुं पुण्यवंती तेहनि, नेहकरी नेमिकुमार ॥२२॥ बड़ी सज-धज के साथ माती है लेकिन तोरण द्वार पर फाग के अन्य सुन्दरतम वर्णनों मे राजुल विलाप भी
SR No.538017
Book TitleAnekant 1964 Book 17 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1964
Total Pages310
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size16 MB
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