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________________ १०२ भनेकान्त वर्जित कथा-जनागमों में म्बी कथा, भक्त स्था, देश है। बुद्ध कहन है-भित्रो ! सौ वर्ष तक एक कन्धे कथा, राज कथा की वर्जना मिलती है । दीघ निकाय के परमाता को और एक कन्धे पर पिता को ढोए, और सौ ब्रह्मजाव और सामफल, इन दोनों प्रकरणों से ऐसी वर्ष तक ही वह उनके उबटन, मर्दन प्रादि करता रहे, व्थानों को तिररछान कथा कहा है-तिरच्छान कथं, उन्हें शीतोष्ण जल से म्नान कराता रहे, तो भी वह अनुयुतो विहरति सेय्यधद-राज कप, चोर कथं, महामत भिक्षुधी। वह माता-पिता का उपकारक होता है, न कर्थ, सेना कर्थ, भयकथं, युद्ध कथं, अन्न कथं, पान कथं। प्रत्युपकारक। यह इयलिए कि माता-पिता का पुत्र पर विशरणा-चतश्शरण-बौट पिटकों में व परम्परा में तीन बहत उपकार होता है। जैनागमों ने धार्मिक महयोग शरण बात ही महत्वपूर्ण है तो जैनागमों व परम्परा में को उऋण होने का प्राधार माना है। चार शरण अपना अन्य स्थान रस्वत हैं । वे तीन व चार दो अरिहन्त-जनागमो की मुहट मान्यता है-भरत शरण क्रमशः निम्न प्रकार है: मादि एक ही क्षेत्र में एक साथ दो तीर्थकर नहीं होते। बुद्ध मरणं गर हामि अरिहन्ते मरणं पवज्जामि बुद्ध कहते हैं-भिन्तुनो ! इस बात की तनिक भी गुंजाइश संघ सरणं गरछामि मिद परणं पवज्जामि नहीं है कि एक ही विश्व में एक ही समय में दो प्रहत् धम्म सरगं गरछामि साहू सरगां पक्जामि सम्यग मंबुद्ध पैदा हों। कंवली परण धम्म मरणं पवजमि म्त्री-पईत-चक्रवर्ती शब्द-जनों की मान्यता है ही यामोत्धुणे-जैन आगमों का प्रसिध्द स्तुति वाक्य है- कि अहंत चक्रवर्ती, इन्द्र आदि म्यी भाव में कभी नहीं "णमोन्धुगा समणस्म भगवत्रो महावीरम्स" बौद्ध परम्परा होते । बुद्ध कहते हैं-भितुओं यह तनिक भी मंभावना का सूत्र है-"णमोल्धुयां समणस्स भगवयो सम्यग नहीं है कि स्त्रा प्राईत, चक्रवती व शक हो ।४ श्वेताम्बर मंबु दम्प"। भाम्नाय के अनुसार भरली म्बी तीर्थंकर थी, पर यह नगर व देश-नालन्दा, राजगृह, कयंगला, श्रावस्ती कभी न होने वाला प्राश्चर्य था। मादि नगरों व अंग, मगध प्रादि देशों के नाम व वर्णन स्थानांग और अंगृनर निकाय-जैन सूत्र स्थानांग के दोनों प्रागमों में समान रूप से मिलने है। प्रकरण संख्या क्रम से चलते हैं। प्रथम में एक मच्या उक्ति साम्य वाली बातों का वर्णन है तो यथा- क्रम दशम में दश जैनागम कहते है-व्यक्ति तीन उपकारक व्यक्तियों संख्या वाली बात का । बौदागम अंगुत्सर निकाय में भी से उत्रण नहीं होता। गुरु से, मालिक से और माता-पिता यही क्रम अपनाया गया है। दोनों का तुलनात्मक अध्ययन से।" वहां यह भी बताया गया है कि प्रमक-प्रमक एक रोचक विषय बन सकता है। प्रकार की पराकाष्ठा परक सेवाएं दे देने पर भी वह अनुस २-अंगुत्तर निकाय । ही रहता है। लगभग वही उक्त बौद्ध पागमों में मिलती ३-अंगुत्तर निकाय । १-ठाययंग सूच ठा. ।। ४-अंगुत्तर निकाय । अनेकान्त के ग्राहक बनें 'अनेकान्त' पुराना ख्याति प्राप्त शोध-पत्र है। अनेक विद्वानो और समाज के प्रतिष्ठत व्यक्तियों का अभिमत है कि वह निरन्तर प्रकाशित होता रहे । ऐमा तभी हो सकता है जब उसमे घाटा न हो और इसके लिए ग्राहक सस्या का बहाना पनिवार्य है। हम विद्वानों, प्रोफेसरो, विद्यार्थियों, सेठियों, शिक्षासस्थानों, संस्कृत विद्यालयो, कालेजों और जनश्रत को प्रभावना में श्रद्धा रखने वालो से निवेदन करते है कि वे शीघ्र ही 'अनेकान्त' के ग्राहक बनें और बनावे।
SR No.538017
Book TitleAnekant 1964 Book 17 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1964
Total Pages310
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size16 MB
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