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________________ श्रीपुर में राजा ईल से पूर्व का जैन मन्दिर नेमचन्द धन्नुसा जैन, न्यायतीर्थ [श्रीपुर 'प्रतरिक्ष पाश्र्वनाथ' का अधिष्ठान रहा है। इसे प्रतिशय क्षेत्र कहते हैं। इसके मन्दिर में 'प्रभु पार्श्वनाथ की प्रतिमा अधर में स्थित है। इसका उल्लेख वि० स० पहली शताब्दी के कुन्दकुन्दाचार्य की 'निव्वाणभत्ती' में प्राप्त होता है। इस मन्दिर का निर्माण राजा ईल से पूर्व खरदूषण ने करवाया था। लेखक ने परिश्रमपूर्वक अन्वेषणबुद्धि से एतद् सम्बन्धी ऊहापोह किया है। -सम्पादक आम तौर पर समझा जाता है कि श्रीपुर पार्श्वनाथ भाग में जब आया था, तब उसका प्रागमन श्रीपुर मे क्षेत्र का निर्माण राजा ईल ने ही किया है । लेकिन उप- हुमा था। (देखो चारुदत्त चरित्र) तथा कोटीभट लब्ध जैन साहित्य, ताम्रपत्र तथा दतकथाओं के प्राधार श्रीपाल-भ० नेमिनाथ के ममकालीन-वत्मनगर (वाशीम पर यह सिद्ध हो सकता है कि श्रीपुर मे ही खरदूपण जिला अकोला) पाया था तब वह इस नगर के बाहर राजा के समय से इस सातिशय प्रभु की स्थापना हो गयी उद्यान में स्थित एक विद्याधर को विद्यासाधन में सहायक थी। श्रीपुर का उल्लेख सातिशय क्षेत्रों में हमेशा हमा हुमा था। 'वत्सगुल्म (वाशीम) महात्म्य' इस किताब मे है । हाँ इतना तो जरूर मानना पडता है कि ईल गजा बताया है कि, पौराणिक काल मे वाशीम का विस्तार के कुछ पहले इस क्षेत्र का विध्वस हो गया हो और प्रभु १२ कोम का था। अत. हो सकता है -उम थोपाल के जी को हस्ते-परहस्ते जल प्रवेश करना पड़ा हो। उसके जमाने में श्रीपुर का स्थान वासम नगरी के बाहर नजीक बाद ईल राजा ने यहाँ धर्म प्रभावना के साथ क्षेत्र का उद्यान जैसा हो। अन्यथा गांव के हलकल्लोल में विद्याउद्धार किया, उस समय भी यह प्रतिमा अधर (प्रतरिक्ष) साधना नहीं हो सकता। रहने से इसका नाम तभी से अतरिक्ष पडा। 'लस थी श्रीपुर का सातिशय क्षेत्र में उल्लेख-(१) इसका प्रतरिक्ष कहा' यह उल्लेख इसका साक्षी है। उल्लेख करने वाले पहले प्राचार्य श्री कुन्द कुन्द (ई. सन् अब सवाल यह पैदा होता है-प्राचीन मन्दिर था, की पहली शताब्दी) के है । वह 'निव्वाण भत्ती' में यहां के तो क्या श्रीपुर नगर भी प्राचीन है ? मन्दिर कहाँ था, पार्श्वनाथ को वदन करते है। देखो 'पास सिरपुरि वदमि । और पहले प्रतिमाजी कैसी विराजमान थी? होलगिरी शख दीवम्मि। इस सातिशय प्रतिमा को राजा खरदूषण ने ही (२) दूसरा उल्लेख (जैन शिलालेख संग्रह भाग २ निर्माण किया, इस बाबत सब दिगम्बर साहित्य एकमत पृष्ठ ८५) राजा चालुक्य जयसिह के ताम्रपत्र में है। ई. है। लेकिन श्वेताम्बर माहित्य में दो मत है। प्राचीन स० (४८८) मे इस क्षेत्र को कुछ भूमि दान दो श्वेताम्बर प्राचार्य माली-सुमाली को निर्माता मानते है, तो गई थी। तथा अकोला जिले के १९११ के गजेटियर में लावण्य विजय से लेकर बाद के सब श्वेताम्बर आचार्य लिखा है कि 'माज जहाँ मूर्ति विराजमान है उसी भोयरे भी खरदूषण को निर्माता मानते हैं। इसका सीधा अर्थ में यह प्रति संवत् ५५५ ई. स.४६८ के वैमाख शुद्ध यह है कि इनके ऊपर दिगम्बरी साहित्य का प्रभाव ११ को स्थापित की गई थी। वहाँ राजा का नाम गंगपड़ा है। सिंह है, जो जयसिंह भी हो सकता है । श्रीपुर को प्राचीनता-चारुदत्त श्रेष्ठी (म० नेमि- इस पर से विश्वास होता है कि यह गजेटियर लिखते नाथ के समकालीन) धन कमाने के इरादे से इस समय उनके पास कोई प्रबल प्रमाण जरूर होगा, नही तो
SR No.538017
Book TitleAnekant 1964 Book 17 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1964
Total Pages310
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size16 MB
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