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________________ २४ अनेकान्त ऊचाइन वह निश्चित तिथि और जगह नही देते । अतः इस उल्लेख इसमे श्रीपुर की जिन प्रतिमा अंतरिक्ष में प्रधर में हमे विश्वास पाता है कि प्राचीन मन्दिर गाँव मे है स्थित होने की स्पष्ट सूचना मिलती है तथा उसकी ऊंचाई उमी जगह होगा। इसका समर्थन नीचे के प्रमाण से भी भी स्पष्ट बताई है कि मामने खड़े होने वाले व्यक्ति के होना है। ऊँचाई मे निकलकर अर्थात कुछ अधिक ऊंचाई पर वह (३) जैन शिलालेख संग्रह भाग २ पृष्ट १०६ मे प्रतिमा स्थित थी। बताया हे कि, "मुनिश्री विमलचन्दाचार्य के (ई० स० श्वेताम्बर विद्वान् श्री जिनप्रभसूरि, सोमधर्मगणी तथा ७७६) उपदंश से पृथ्वी निर्गुन्दराज की पत्नी कूदाच्ची लावण्य विजय सूरि भी इस बात की पुष्टि करते है कि ने धीपूर के उत्तर मे 'लोकतिलक' नाम का मन्दिर बन- श्रीपुर में पहले एक पुरुष से अधिक ऊँचाई पर प्रतिमा वाया 'पा। तथा इसकी मरम्मत, नई वृद्धि, देवपूजा मादि अधर स्थित थी। के लिए एक ग्राम दान दिया था।" टन श्रीविमलचट्टाचार्य देखो-जिनप्रभसूरि-'श्रीपुर मे पहले पानी भरने की प्रतिष्टित मौर भी छोटी-छाटी धातु तथा पापारण की वाली स्त्री (मूर्ति के नीचे) से निकल जायगी इतनी प्रतिमाएं श्रीपुर मे सलेख पाई जाती है । अधर प्रतिमा थी।' (थी अतरिक्ष पार्श्वनाथ कल्प) मोमधर्मगरणी-'एक स्त्री अपने मस्तक पर घट-पर-घट इम पर से स्पष्ट प्रमाणत होता है कि, वह मन्दिर रख कर उम बिब के नीचे मे पहले निकल जा मकनी श्रीपुर के उत्तर दिशा में बनाया गया था। मन्दिर श्रीपुर थी। ऐमा श्रीपुर के वृद्ध लोग कहते है।' (उपदेश के उत्तर भाग में ही है। तथा उत्तर दिशा नकशे में अग्र मप्तति उन्लोक (२१-२२)। लावण्य समय-'प्रतिमा के भाग में ही रहने मे या गिद्धस्वरूपी त्रिलोकीनाथ यहाँ नीचे में पहले एक अमवार निकल जा मकता था' आदि । विगजमान होने से इम मन्दिर का 'लोकमिलक' ऐसा (थी अतरिक्ष पार्श्वनाथ छद) साथ मे ये तीनो श्वेताम्बर नाम रखा होगा। विद्वान एक आवाज मे कहते है कि 'अब यह प्रतिमा एक (४) पाठयी मदी के श्वेताम्बर विद्वान हा भद्रमूरि अगुल भर ही अधर है।' ममगच्चकहा मे पृष्ठ ३६८-३६६ पर श्रीपुर का उल्लेख प्राचार्य श्री विद्यानन्दी (ई० म०६४०) का श्रीपुर करते है। उस श्रीपुर का बलामा अनेकात जून १९६२ ।। पाश्वनाथ स्तोत्र' सूचित करता है कि, ईल राजा के पहले में पृष्ठ ८६ पर इस प्रकार पाया है-'४६ श्रीपुर थीपर मे गातिशय पार्श्वनाथ की मूर्ति तथा मन्दिर था। विविध तीर्थ कल्प के अनुमार श्रीपुर में अतरिक्ष पाश्वनाथ बाबू कामताप्रमाद जी लिखते है कि 'श्रीपुर में पार्श्वकी प्रतिमा स्थापित की गई है। श्रीपुर का निर्माण नाथ भगवान का ममवशरण पाया था' (स० जैन इ. मानी मुनानी ने किया है। भाग १ पृ० ८८) इमका मीधा अर्थ यह है कि श्वेताम्बगे के प्राचीन इसके बाद का तथा श्रीपाल ईल गजा के पहले का माहित्य में भी श्रीपुर का अस्तित्व मानीमुमाली के जमाने कोड और माहित्यिक उल्लेख दृष्टि में नही पाया। हाँ, में माना जाता है। जो पाया है उस पर अगर विश्वास रखे कि वह वादिराज (५) श्री जिनमेनाचाय (ई० स० ७८४) हलिवश मुनि का ही है तथा श्रीपुर सबन्धी ही था तो श्रीवादिराज पराण अध्याय ५७ श्लोक ११०-१२३ मे श्रीपुर, ग्रचल- के (ई० म०८६०-७०) जमाने मे श्रीपुर के मन्दिर का पर (प्रचलसपुर) आदि ८५ नगर्ग को दिव्य नगर कहा विध्व स हो गया होगा। और मूर्ति जलकूप मे विराजित है। और मागे कहा है कि 'वहाँ के जिन मन्दिर मे स्थित हुई होगी। यह जलक्रूप वह ही जान पड़ता है, जो पौली प्रतिमाएं यद्यपि अपने-अपने स्थान पर स्थित है. तथापि मन्दिर के बाजू में ही है। [ऐसा आज भी अनुभव होता म मने खड़े होकर देखने वालो को ऐमी दिग्वाई देती है है, कि उम कुएँ का जल एक मास तक सेवन करे तो मानो उन स्थानो मे निकलकर आकाश मे ही विद्यमान उमसे सब उदर रोग चले जाते हैं।] भानुविजयगणी के हो ।। श्लोक १३६॥ (वि० स० १७१५) के कथनानुमार भी, यह कृप इमली
SR No.538017
Book TitleAnekant 1964 Book 17 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1964
Total Pages310
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size16 MB
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