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________________ मोलमार्ग की दृषि से सन्याताल का निरुपण फिर उसमें से छः द्रव्य, पचास्तिकाय, नवपदाथी उसमे से बिलकुल हटाना है, और जिसको स्व तत्व का यथार्थ अनेकान्त स्वरूप जानना होगा । ये तो सब निश्चय किया है उममें उपयोग को मर्वया जोरकर पर द्रव्य हैं। प्रजीव तत्त्व है। इनमे रहने वाला एक ध्यान करना है। यह वह कार्य है जो कमो को क्षय प्रनाक्षि मनन्त, स्वसिद्ध आहेतु शुद्ध जीरास्तिकाय करता है। इस कार्य को बिना व परके जाने वैसे ही क मानीवनमा मुनि बना हुमा व्यक्ति कैसे करेगा? तीन काल में नहीं में गुप्त रूप से निहित है जिसके कार येन तत्त कर सकता। इसलिए स्व परका जानना अत्यन्त जरुरी तिरते हैं । वह ऐमा लश मे पायेगा जैसा सिद्ध । उममे है और इतना जरूरी है कि छठा गुणस्थान तो क्या उस स्व पर के जाने बिना चौथा गुणस्थान ही नहीं पाता। पौर मिद्ध में एक बाल भर का अन्तर नहीं है । बस वह शिष्य -यदि पर को न जाने और स्वही स्वको स्वतत्त्व है। निज शुद्ध प्रात्मा है । उपादेय है जीव तत्व जान ले तो क्या प्रापत्ति है? है। शेप छः द्रव्य पचास्तिकाय पोर नव पदार्थ सबकुछ गुरु-पर को जानने की इसलिये जरूरत है कि है जीव तन्व है पर है। इसको देय उपादेय और स्त्र उममे से उपयोग को हटाना है और स्व को इसलिए पर कहते है। इनका स्वरूप जैसा कुछ है वैसा ही लक्ष जानने की जरूरत है कि उममें उपयोग को जोड़ना है। में माना चाहिये । जैसा मर्वज्ञ ने देखा है ठीक वैसा। दूसरे इमलिए भी स्वर को जानने की पावश्यकता है न कमती, न वेशी, न उलटा, जमे का तैमा, सन्देह रहित, कि पर का कोई मश स्व में ना पा जावे और स्व का पक्के अटल विश्वाम को लिए हा ज्ञान में प्राना चाहिए कोई प्रश पर मेन चला जाय। यदि जरा भी किसी जब वह मशय विपर्यय, अनध्य वमाय रहित ज्ञान मे पा प्रश गड़बड़ी हो गई तो फिर भेदविज्ञान न होगा। जाएगा तब स्व पर का ज्ञान होगा और तभी मम्यग्दर्शन तोमरे भेदविज्ञान हमेशा दो मिले हए पदार्थो मे ही पकप्रनादि का कुवतज्ञान मुश्र त मै परिणत हो किया जाया करता है जमे दूध पानी में | मोना कीट में जाएगा। उम ममय चौथा गुण स्थान पायेगा पोर जीव मादि । उन दोनों को जानकर फिर भिन्न भिन्न किया मम्यग्दष्टी नाग को प्राप्त होगा। फिर पाचवे छठे जाता है। गुणस्थान मे अणुव्रतों महाव्रतो को धारण करता हमा शिष्य-उस भेदविज्ञान द्वारा कैसा अपना निज इस भेद विज्ञान का निरन्तर प्रश्याम करके इमे विशेष शुद्ध पात्मा हाथ लगेगा जिससे सातवाँ गुणस्थान वाला उज्ज्वल और दृढ बनाता रहेगा। एक क्षण के लिये भी प्रात्मध्यान द्वारा अनुभव करेगा? इसका उत्तर स्वयं इसका विरह न होने देगा । इस प्रकार इन तीन गुणस्थानों प्राचार्य महाराज निम्न गाथाहारा देते हैंकी दशा को पार करेगा। जो पस्सदिपप्पाण प्रब' अणण्णमविसेसं । शिष्य-यदि जीव उपरोक्त परिश्रम न करे और अपवससन्तमझ पस्सवि जिण सासण साजर समयसार दिगम्बर भिक्षु हो जाय तो क्या फिर उसका काम न अर्थ-जो सम्यग्दृष्टी मुनि मात्मा को प्रबद्धस्पृष्ट बनेगा? उत्तर गुरु महाराज स्वय गाथा मे देते हैं अनन्य, प्रविशेष, तथा उपलक्षण से नियत पोर मसंयुक्त मागमहीगो समणो णेवप्पाणं पर वियाणादि। इन पांच भावों वाला देखता है"अनुभव पूर्वक जानता है अपिजाणतो पट्ट लवेदिकम्माणि किष भिक्खू ३-३३॥ वह सम्पूर्ण जिनशासन को देखता है-जानता है कि जो प्रवचनसार जिन शासन बाह्य द्रव्यश्रत तथा अभ्यन्तर शान रूप प्रयं-प्रागमज्ञान रहित श्रमण प्रात्मा को (निज भाव श्रत वालाहै । को) पौर पर को नही जानता है। पदार्थों को नही (१) प्रबद्धस्पृष्ट-व्यवहार से प्रात्मा द्रव्यकर्म से जानता पा साधु कर्मों को किस प्रकार क्षय करे? बद्ध पौर नोकर्म से स्पृष्ट होने के कारण बडस्पष्ट है नहीं कर सकता। किन्तु निश्चय से इनसे रहित होने से पडस्पष्ट है। भावार्थ-क्या पाप गुरु देव के भाव को समझे ? (२) अनन्य-व्यवहार नप से नर, नारक मावि यह कहना चाहते हैं कि मागे सातवा गुणस्थान है। नाना पर्यायल्प होने से अब मन्य है पर निश्चय से इन उसमें उपयोग को, जिसको पर तत्व निश्चय किया है से रहित होने से मनन्य है। TO
SR No.538017
Book TitleAnekant 1964 Book 17 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1964
Total Pages310
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size16 MB
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