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________________ अनेकान्त (६) नियत-व्यवहार से ज्ञान, दर्शन भादि के तक छठ गुणस्थान में है तब तक वह तो व्यवहार से पर्याय में पविभाग प्रतिग्छेदों की हानि वृद्धि होने से मति इतकेवली है और जो सारे द्वादशांग को भले न जानता झान मावि ज्ञान तथा चक्ष दर्शन मादि दर्शन रूप परि• हो किन्तु उसके मक्खन स्वरूप निज शुरु मारमा को गमता होने से मनियत है किन्तु निश्चय से ज्ञान मोर मप्रमत्त दशा में अनुभव करता है वह तो निश्चय से बत. वर्शन मादि से परिपूर्ण होने से नियत एकरूप है। केवली है। इतनी इस सम्यक् श्रुतवान की महिमा है। (४) विशेष-व्यवहार से ज्ञान, दर्शन, सम्यक्त्व सातवें से बारहवें गुणस्थान तक के सम्यज्ञान का निकपादि गुणों से, प्रगुरुलघु की पर्यायों से तथा प्रसंख्यात पण करता है। प्रदेशों से विशेषतावाला है क्योंकि इनके साथ उस का भागे तेरहवें चौदहवें गुणस्पान के सम्पग्मान का लक्ष्य लक्षण भेद है पर निश्चय से सब विशेषतामों से रहित विशेष है। निरूपण इस प्रकार हैप्रसंयुक्त-व्यवहार से मिथ्यात्व, क्रोध मादि राग जारणदि पस्सदि सम्वं ववहारणएण केवली भगवं । भावों से संयुक्त होता है पर निश्चय से इन भावों से केवलणाणी जाणदि पस्सदि रिणयमेण अपारणं ॥१४६ रहित होने के कारण असंयुक्त है। नियमसार ऐसे पाच भावों से युक्त प्रात्मा को जो पप्रमत्त पर्ष-व्यवहार नय से केवली भगवान सब को दशा मे पाकर अनुभव करता है मानो वह सारे द्रव्य जानते हैं और देखते हैं। निश्चय से केवलज्ञानी पारमा भावरूप श्रुत का अनुभव करता है क्योंकि सम्पूर्ण श्रत का मक्खन यह भास्मा ही है । जिसने इनको अनुभव कर को (स्वयं-निज शुद्ध पारमा को) जानते है देखते ।। लिया उसने सभी पागम को जान लिया। शिष्य-बारहवें गुणस्थान से इसमें क्या पन्तर बिलकूल इसी बात को श्री प्रवचनसार मे भव्य पहा? शम्मों में इस प्रकार कहा हैजो हि सुदेण विजाणदि अप्पारणं जाणगं सहावेण । ___ गुरु-वहाँ छपस्थ पुरुषार्थपूर्वक अपने उपयोग को पर से हटाता या मोर स्व में स्थित करता या महान त सयेकेवलिमिसिगो भांति लोयप्पदोवयरा ॥३३॥ परुषार्थ करना पड़ता था जिसको कोई भी छपस्थ समयसार ६,प्रवचनसार ३३ मन्तम हर्त से अधिक नहीं कर सकता। उसके फलस्वरूप मर्ष-जो अतज्ञान के द्वारा स्वभाव से शायक घातिकर्म का नाश होता है और उस पाति कर्म ने जो (शायक स्वभावी) पास्मा को जानता है उसे लोक के प्रात्मा का स्वभाव तिरोभूत कर दिया था वह स्वयं प्रकाशक ऋषीश्वरगण निश्चय से श्रतकेवली कहते प्राविर्भूत हो जाता है। इसकी स्वयंभू संज्ञा हो जाती है। फिर वह स्वतः अनन्त काल तक स्व में स्थित रहता भावार्थ-कुछ विद्वान इस गाथा को चौथे गुणस्थान है। उपयोग को पुरुषार्थ पूर्वक स्व में जोड़ने की पावकी कहते है पर ऐसा नहीं है। यह गाथा तो सातवें से श्यकता नहीं रही और इतना ही नहीं। उपयोगको जो पुरुषार्थ पूर्वक पर से हटाता था उसकी भी आवश्यकता बारहवें गुणस्थान की है। इसका भाव ऐसा है कि जो नही रही अर्थात् उपयोग लगाकर पर का मानना ही नहीं सम्यग्दृष्टि मुनि सातवें गुणस्थान में ज्ञायक स्वभावी रहा किन्तु पर स्वतःझलकता है और स्वत: जाना जाता अपन निज शुखमात्मा का भाव तशान वारा अनुभव है जिसको केवली का व्यवहार से पर का जानना कहत करता है वह निश्चय से श्रुतकेवली है। चाहे गणपर हैं। यह सम्यग्ज्ञान की प्रतिम उत्कृष्ट दशा है जिसको भी हो, जो पूर्ण द्वादशांग को जानने वाला है वह जब निश्चय सम्यग्ज्ञान कहते हैं।
SR No.538017
Book TitleAnekant 1964 Book 17 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1964
Total Pages310
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size16 MB
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