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________________ भट्टारक विजयकीर्ति (डा. कस्तूरचन्द्र कासलीवाल) विजयकीर्ति भट्टारक ज्ञानभूपण के शिष्य थे। इन वदित सूर चरगणं भव्यह शरणं पद्रवरं । की अलौकिक प्रतिभा एवं पांडित्य को देखकर ज्ञानभूषण विजयादिहि कीर्ति मो महमुनि धमरधुर ।। इन पर मुग्ध हो गये और अपने जीवन काल में ही सवन् धरि संग्रह भारं मोह विदारं मृहय तट । १५६० के पूर्व इन्हें भट्टारक पद पर बिठा दिया। विजयकीर्ति परवादी छिद जागगड छंदं कम्मतुट ।। पहिले गृहस्थ थे। कुछ ही वर्ष पूर्व इनका विवाह हुश्रा था संगार मपंथं लोह विगथ छाय वद । कि ज्ञानभूषण से इनका भेंट हो गयी। ज्ञानभूषण उस जिरिगमन पहचग गुरु उत्त गं दलित भट ।। समय भट्टारक थे और धर्म एवं साहित्य प्रचार के लिये उन्मूलित प प निहिन विताप उधरह गठ। स्थान स्थान पर भ्रमण करते रहते थे। एक दिन इन्हें विजय- उद्धरइ जिन गेह यात्र समुह वपइ मठं ।। कीर्ति मिले । आपस में बातचीत होने के पश्चात् ज्ञानभूषण वदित मूर चरगा भव्यह शरण पट्ट धर । मे उन्हें अपना शिष्य बनाना चाहा । इसके लिये इनकी स्त्री विजय दिहि कीति सो मह मृत्ति धम्म धुरं ।। को समझाया गया । संसार की असारता को कितनी ही तरह विजयकीनि उत्कृष्ट तपस्वी थे। बाईस परीषहों के पति-पत्नी के सामने रखा गया और अन्त में ज्ञानभूषण को विजेता एवं चौबीस प्रकार के परिग्रहों के त्यागी थे। अपने सफलता मिल गयी। भ. शुभचन्द्र ने एक रचना में इसी चारित्र एवं सपोबल से वे सबके जनमानस को अपने वश प्रसंग का अच्छा वर्णन किया है उसी के दो छन्द देखिये:- कर लेते थे । वे साधुओं के शिरोमणि एवं दु:म्यानल के लिये बयण सुनि नव कामरणी दुग्व धरिइ महत।। मेघ के समान थे। अन्य छन्द में शुभचन्द्र ने ही इनकी कही वि मासण मझ हवी नवि वाग्यो रहि कत ।। निम्न शब्दों से प्रशंसा की है:रे रे कामरिण म करि तू दुखह इन्द्र नरेन्द्र मगाव्या । अमल सकल पद कमल विमल लपि नेह म मंडित । भिवह। निर्मल कोमल काय'वरगांगू सू पंडित ।। हरि हर बभमि कीया र कह लोय सव्व मम बसी लोचन कमल दल लाभ, लाभ कलिकाल म कारण। हुँ निसंकह ।। अचला बलिका लुब्ध, सृजन समार वितारण । विजयकीर्ति शास्त्रों के अच्छे ज्ञाता थे। लब्धिमार, सज्ञान भूपगा पहाभरगा, विजय कीति शामन प्रवल। गोम्मटसार, त्रैलोक्यमार के मर्मज्ञ विद्वान थे। न्यायशास्त्र कुडलि खेल सूरि भचद सेवित पद कमल ।। पर उनका पूरा अधिकार था एवं कठिन काव्यों को वह सहज शास्त्रार्थ करने में वे निपुण थे। जहां भी जाने अपने ही समझ लिया करते थे भ० शुभचन्द्र ने इनके पांडित्य का वादियों से भिड जाते । वे स्वच्छन्द घूमते और ललकारने 'विजयकीर्ति छन्द' में निम्न प्रकार उल्लेख किया है.- पर भी उन्हें कोई शास्त्रार्थ करने वाला नहीं मिलता। वे लब्धि सू गुम्मटसार सार त्रैलोक्य मनोहर । बादियों के गर्व को महज में चूर कर देते और अपने अमृत कर्कश तर्क वितर्क काव्य कमलाकर दिरणयर ।, मय बचनों से सबकी ज्ञान पिपासा को शान्त कर देते । एक अन्य गुरू छन्द में भट्टारक शुभचन्द्र ने अपने गुरु जनता उन्हें वादीन्द्र के रूप में जानती थी भट्टारक शुभचन्द्ग का स्तवन करते हुये लिखा है: ने अपने एक छन्द में इनके शास्त्रार्थ की निम्न शब्दों में ध्यानामृत पानं वसइरानं विहित सहं । प्रशंसा की है:परवादीय महन विहित सुबईन निहित कुहं । वादीयवाद विटंब वादि मिग्गल मद गंजन ।
SR No.538017
Book TitleAnekant 1964 Book 17 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1964
Total Pages310
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size16 MB
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