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________________ कविवर रइधू रचित-सावय चरिउ श्री अगरचन्द नाहटा अपभ्रंश भाषा में दिगम्बर और श्वेताम्बर दोनों जैन वानदास गांधीने अपभ्रश काव्यत्रयी तथा स्व. मोहनलाल सम्प्रदायों की छोटी-बड़ी मैंकड़ों रचनायें प्राप्त हैं। ८ वीं दलीचंद देशाई ने 'जैन गुर्जर कवियो' भाग १ की विस्तृत १ वीं शताब्दी से लेकर संवत् १७०० तक की इन रचना- भूमिका में अपभ्रश साहित्य का ज्ञातव्य विवरण प्रकाशित भों में प्राख्यानक काव्य सबसे अधिक हैं, कुछ रचनायें किया था। सन् १९५० में दि. जैन अतिशय क्षेत्र, महावीर जैन धर्म के संबंध में हैं कुछ रचनायें तो बहुत ही महत्व जी की ओर से प्रकाशित 'प्रशस्तिसंग्रह' नामक ग्रन्थ में करीब पूर्ण हैं महाकाव्य, प्रबंध काव्य, खण्डकाव्य, रूपक काव्य १२ अपभ्रंश रचनाओं का यादिनन्त विवरण प्रकाशित और मुक्तक काव्य विशेष रूप से उल्लेग्वनीय है। हा और सन् १९४४ में पं० परमानन्द शास्त्री ने अनेकान्त इधर कई वर्षों में राजस्थान आदि के जन भण्डारों की की ८ वी किरण में 'जयपुर में एक महीना' नामक लेख में सूचियाँ बनाने और प्रकाशित करने का काम ठीक से हवा है अपभ्र श के २६ ग्रन्थों के रचना काल आदि का विवरण दिया और इससे बहुतसी नवीन रचनाओं को जानकारी प्रकाश में था, पश्चात् परिचयात्मक लेख भी निकले। और सन १९५६ पाई है। दिगम्बर कवियों की तो कुछ बड़ी बड़ी रचनायें में 'अनेकान्त में पं० परमानन्दशास्त्री ने जैनग्रंथ प्रकाशित भी हुई हैं पर श्वेताम्बर रचनायें यद्यपि छोटे-छोटे प्रशस्ति संग्रह के नाम से ३६ दि. जैन अपभ्रंश रास आदि कई प्रकाशित हुये हैं पर नेमिनाह चरित. विलास रचनाओं का श्रादि अन्त के पद्यों सहित विस्तृत वह कहा श्रादि बड़ी और महत्वपूर्ण रचनायें अभी तक विवरण प्रकाशित किया। फिर इसके बाद अनेकान्त का अप्रकाशित हैं । अपभ्रश रचनाओं का क्षेत्र भी काफी बडा प्रकाशन स्थगित हो गया। अतः उनका वह कार्य उधाही रहा । राजस्थान, गुजरात, एवं उत्तर-मध्य प्रदेश में सर्वा- पडा रहा। हर्ष की बात है कि अब वह ग्रंथ वीर-वाधिक अपभ्रश रचनायें रची गई बहुत सी रचनायों की मन्दिर से विस्तृत प्रस्तावना के साथ प्रकाशित हो गया है। प्रशस्तियां ऐतिहासिक दृष्टि से बड़े हा महत्व को है अनेकों इसमें १२२ ग्रंथों को प्रशस्तियां प्रकाशित हुई है। अज्ञात एवं महत्वपूर्ण तथ्य इन प्रतियों में विदित होने १४४ पृष्ठों की पं. परभानन्द जी की प्रस्तावना वास्तव में हैं। अत: भाषा-विज्ञान एवं साहित्य की दृष्टि से मूल्यवान बड़े ही परिश्रम से लिम्बी गई है और अनेकों नान होने के साथ ऐतिहासिक दृष्टि से भी इन रचनात्रा का बड़ा तथ्यों की जानकारी देती है। अपभ्रंश रचनाओं का इतना महत्व है। अधिक विवरण अन्य किसी भी ग्रंथ में प्रकाशित नहीं हुआ इसलिए इस ग्रंथ के सम्पादक परमानन्द जी और प्रकाशक अपभ्रश साहित्य का ज्ञातव्य विवरण डा० हाराजाल वीर सेवा मंदिर की जितनी भी प्रशंसा की जाय वह थोडी जैन ने करीब २० वर्ष पूर्व नागरी प्रचारिणी पत्रिका में प्रकाशित किया था उसके बाद दा० हरिवंश कोछड़ ने शोध प्रबन्ध लिख कर अपभ्रंश माहित्य के महत्व को अच्छे का यद्यपि प्रस्तुत ग्रन्थ की प्रस्तावना बहुत साधारण सी प्रकाशित किया, पाटण भण्डार सूची और Catalogue लिखी गई है । पर किमी एक ही व्यक्ति को सभी बातों of Sanskrit and Prakrit nanuscripts in की जानकारी होना कम ही सम्भव है सामग्री के प्रभाव the Central Provinces & Berar में तो सन् और कभी कभी कुछ असावधानी अादि से भी कुछ भूल१९३६-१६३७ में कतिपय अपभ्रंश रचनाओं का प्रादि भ्रान्तियां हो जाती हैं। जिनका परिमार्जन जल्दी से जल्दी अन्त विवरण प्रकाशित हुआ था और पं० अभयचंद भग- हो जाना चाहिये। ताकि उन भूल-भ्रान्तियों की परम्परा
SR No.538017
Book TitleAnekant 1964 Book 17 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1964
Total Pages310
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size16 MB
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