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________________ जैन साहित्य में प्रार्य शब्द का व्यवहार " का सूचक है। श्राचारांग में समागत आर्य शब्द का अर्थ १ टीकाकार ने सीर्थकर किया है। दूसरी जगह शब्द का जो अर्थ किया गया है, वह अत्यन्त व्यापक है। उसके अनुसार कोई भी कभी भी और कहीं भी आर्य कहला सकता है। वहां तीन चार विशेषण धाए हैं—आर्य २, आर्यप्रज्ञ, आदर्श आदि टीकाकार ने यहां कार्य कार्य किया है. - ३ समस्त हेय धर्मो से दूर चला गया अर्थात् जो परि के योग्य है, वह आर्य है जो आर्यप्रज्ञावान है, वह आर्यप्रज्ञ तथा जो न्यायोपपन्नता से देखता है, वह श्रार्यदर्शी है। आगे चलकर हिसक को बनाये और हक को आर्य की संज्ञा दी है। वहां जो ऐसा करने वाले हैं कि सब जीवों को मारना चाहिए, छेड़ना चाहिये वे तो अनार्य हैं और जो प्रार्य है, वे उनके प्रलाप को दृप्ट और दु.श्रत कहने हुए समग जीवों को श्रधात्य और अवध्य बतलाते हैं। । उत्तराध्ययन सूत्र में आर्य शब्द का कई अर्थो में प्रयोग हुआ। है। वहां आया है, निजरार्थी आर्य धर्म को स्वीकार करे। यहां 'आर्य' धर्म' शब्द जैन धर्म के लिए नहीं. श्रेष्ठ धर्म के लिए प्रयुक्त हुआ है। १० में श्रध्ययन में दुर्लभताएको अति दुर्लभ बनाया है। यहां भी आर्य गुण का वाचक हैं। जहां आर्य की सोमवार की श्लाघा की गई हैं, वहां श्रार्य शब्द समताशील के अर्थ में प्रयुक्त हुआ लगता है । आय की भांति श्रनाय शब्द का प्रयोग भी प्रचुर मात्रा में हैं जिससे शब्द का और भी सर्वांगीण हुश्रा विश्लेषण होता है । हरिकेशी मुनि के कृश शरीर व स्वल्प १- आरिए अस्थिपन्ने, बारियसी (श्रा० ज० २०५ पा०८८) त्यात सर्व हेय धर्मस्य इत्यार्थ चरित्राहः, थाया प्रज्ञा यस्यासावार्य प्रज्ञः आर्य प्रगु न्यायोपपन्नं पश्यति तत्शीलाश्चन्याय दश । ३ - - श्रणारिय वयमेव तत्थ जे शारिश्रा त एवं सब्वे पाणा न हन्तवा (श्रा० उ० ४ उ०२ सू० १३४ ) ४यित पुरविदुक्ल (४००० रक्षांक १२) ५ श्रहो अज्जम्स सामया (उ० श्र० २० श्लोक ८) ७७ सामग्री को देखकर यज्ञ स्थल में ठहरे हुए मारे कुमार आदि हंसने लगे । उन्हें अनार्य६ कहकर पुकारा गया। यहां बनायें शब्द असभ्यता व अज्ञानता का द्योतक है। इसी तरह मिया दृष्टियों पार्श्वयों को भी बनायों की अंशी में गिनाया गया है। दशवकाल में भोग लिप्यु के लिए अनाव' शब्द का प्रयोग दिया गया है । जब मुनि परिस्थितियों से घबराकर पुनः गृहवास की इच्छा करता है, तब श्राचार्य उसे ललकारते हुए अनाम' शब्द का प्रयोग करता हैं। आर्य शब्द का व्यवहार अधिकांश दधा संयतभाव के लिए हुआ करता था। पर एक जगह धर्मपद के लिए चार्य पद१० शब्द दिया है। कहीं-कहीं नाना और दादा, नानी और दादी के लिए भी आर्यक व प्रायिका शब्द आए हैं जो अवश्य अवस्था व अनुभवों की प्रोदना तथा परिपक्वता के द्योतक हैं। नागमों व आगेतर भन्थों में बहुत सारे स्थलों पर आर्य' शब्द का प्रयोग हुया है जो लगभग इन्हीं श्रर्था का प्रतिनिधित्व करता है। इससे स्पष्ट है कि आर्य शब्द जो बाहर से आकर भारत में बसी हुई एक जाति विशेष के लिए प्रयुक्त होता रहा है, वह अतीत में बहुत ही व्यापक अर्थ में प्रयुक्त होता था। इस शब्द को जहां तक खोजा गया है उससे भी पुराना है इसका इतिहास गहरी | आदि शोध के बाद ही जाना जा सकता 1 ६ पन्सो वह उनगरणं उवहसन्ति प्रणारिया । उ० प्र० १२ श्लोक ३०) वामिमहादिदि अणारिवा (मु० मु० प्र० अ० १२३, श्लो० १०) एवं मेगे उपासत्या पन्नवन्ति प्रणारिया (यू० श्र० प्र० प्र० ३ उ० ४ श्लोक ५) ह-अज्जी भोग कारणा (द० चू० १ श्लोक १ ० २ ) १] महासू (२० ० १० लांक १८ ११- प्रज्ज पज्जए वाचि (३०२०० श्लोक १८ ) अज्जिए पज्जिए वाव द० ००० श्लोक १२)
SR No.538017
Book TitleAnekant 1964 Book 17 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1964
Total Pages310
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size16 MB
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