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________________ जनसाहित्य में प्रार्य शब्द का म्यवहार ७५ है। कभी-कभी ऐसा भी होता है कि शब्द प्राता तो है माधुनिक घटना है। इस विषय में अपना मत प्रदर्शित अतिशय व्यापकता लिए और बाद में धीरे-धीरे संकीर्ण करना दुस्साहस सा दिखाई देता। फिर भी यह समय ई. होता चला जाता है। पू० दूसरी शताब्दी के मध्य से अधिक प्राचीनतर तो नहीं हो भारतीय संस्कृति के प्रतीक प्रार्य शब्द के साथ यही सकतार । भागे चलकर इसी काल को प्रार्य भाषा व साहित्य हुअा है । वह एक विराट अर्थ लेकर प्राज भारततर देशों मात्र का प्रादि काल माना है। उपरोक्त तथ्य परस्पर बहुत से प्राई हुई एक जाति विशेष के अर्थ में ही रूढ़ हो गया विसंवाद लिए हुए है। मार्यों के प्रागमन व साहित्य मात्र है। डा. सुनीतिकमार चटर्जी ने आर्य जाति के बारे में जो का काल एक ओर ई० पू० ११०० वर्ण माना है तया वेदों लिखा है वह यों है-'भारतीय जातियों व संस्कृति को को प्रार्यों का ही निजी साहित्य माना है जबकि वेदों की मूलाधार ये ही चार जातियां थी · निषाद, इविद, किरात व प्राचीनता ई. पू. ३००० वर्ष प्रमाणित हो चुकी है। आर्य । इनमें प्रार्थो का स्थान सर्वोपरि रहा है, इस तथ्य फिर पार्यो को भी इतने लम्बे काल तक जाना चाहिए को स्पष्ट करते हुए लिखने हैं-"भारतवर्ष में अनेक जाति- था। इस पर लंग्वक ने यह तर्क दिया है कि वेद भायों के यों के लोग समय-समय पर आकर बसत रहे हैं, और प्रागमन के पहले भी थे। बाद में घेदों व पौराणिक परम्पउन्होंने अपने ढंग से जीवन व्यतीत करने की प्रणालियां राओं का सम्कत व प्राकृत में प्रार्याकरण हो गया। यह भी एवं विचार विकसित किए हैं, किन्तु इस सम्बन्ध में समस्त नहीं जचता, क्योंकि पार्यों की प्राचीनतम भाषा संकृत सामग्री उपलब्ध नहीं है। जहां कहीं भी सुसभ्य जाति को मानी जाती रही है और वेद भी संस्कृत में थे व हैं। अगर मानवों से सुदर स्थानों में रखा, वहां वह बची रह गई है, वदों का बाद में मंस्कुतीकरण हुआ है तो उसका पहला उनकी भाषाओं द्वारा ही उसका अध्ययन सम्भव है । लेकिन रूप भी उपलब्ध होना चाहिए। दूसरे में पार्यों का यहां निष्कर्ष के रूप में भारतीय जन समुदाय की ऐतिहासिक- स्वयंभूत होना रूदिवादी हिन्दुत्रों की मान्यता कही जाती है, धार्मिक और विचारगन विशेषमानों को लेकर बनी हुई लेकिन पार्यों के आगमन की बहुमत तिथि २०० वर्ष ई. संस्कृति के निर्माण में सबसे बड़ा हाथ पार्यो की भाषा का पृ० मानी गई है, जबकि धार्य शब्द का उल्लेख इस पूर्वरहा। प्रास्ट्रिक और द्वाविदों द्वारा भारतीय संस्कृति का वीं जैन, बौद्ध और वैदिक वाहमय में प्रचार मात्रा में शिलान्यास हुधा था और प्रायों ने उस प्राधार शिला पर मिलता है। अत: बहन सम्भव है चार्य यहां की स्वयंभूत जिम मिश्रित संस्कृति का निर्माण किया है, उस गंस्कृति, जाति रही हो । वर, यहां आर्य शब्द मात्र जाति विशेष का माध्यम, उसकी प्रकाशभूमि एवं उसका प्रतीक यही को लेकर आया है । ये मारे मतभेद आर्य जाति की उत्पत्ति प्रार्य नाषा बनी। प्रारम्भ में संस्कृत, पाली, पश्चिमो. व प्रागमन को लेकर हैं, लेकिन यहां का विश्लेषणीय भार्य तरीय प्राकृत (गांधारी), अर्ध मागधी अपभ्रश आदि शब्द व्यापक अर्थ में होगा, अतः यहां इन सारे तर्को का आदि रूपों में तथा बाद में हिन्दी, गुजराती, मराठी, उडिया, कोई प्रयोजन नहीं है। यहां तो केवल म्पष्टीकरण किया बगंला और नेपाली सादि विभिन्न अर्वाचीन भारतीय गया है कि प्रस्तुत लेख के आर्य शब्द को ममागत जाति के भाषाओं के रूप में भिन्न-भिन्न ममयों एवं प्रदेशों रूप में न देखा जाए। में भारतीय संस्कृति के साथ इस भाषा का प्राविधेय सम्बध "सन १९३५ में फारम ने अपना नाम बदलकर ईरान बग्धता गया । रग्बा । जिसका आर्यन शब्द से सम्बन्ध है। यह यहुदी इसी पुस्तक में भागे यह भी बताया गया है कि केवल लोगों के साथ जानिभेद को स्पष्ट करने के लिए किया गया भारत में ही ३५०० वर्ष पुराना पार्य भाषा का प्रविछिन्न था।" यहां की आर्यन शब्द जाति विशेष का ही प्रतीक इतिहास उपलब्ध होता है तथा भारत में पार्थो का आगमन बनकर पाया है, लेकिन प्राचीन भारतीय साहित्य में प्रार्य प्राचीनकाल के विश्व इतिहास में अपेक्षाकृत अर्वाचीन या शब्द का प्रयोग श्रेष्ठता व कुलीमता के अर्थ में हुआ है। १-भारतीय पार्य भाषा और हिन्दी पृष्ठ १४-१५ २-भारतीय प्राय भाषा और हिन्दी पृष्ट ३०
SR No.538017
Book TitleAnekant 1964 Book 17 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1964
Total Pages310
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size16 MB
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