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________________ अनेकान्त (पृष्ठ २४ का शेष) वाद के मेद तया प्रग प्रयोग निपिख है नया विजय प्राप्त करने का उद्देश वाद परि० ८६ से १८ तक वाद के भेदों तथा अंगों का में भी होता है, अतः जन प्रमाणशान्त्र की परम्परा के विचार है। प्राचार्य ने वाद का वर्गीकरण दो प्रकारों अनुसार वे वाद और जल्प में कोई मंद नहीं मानते । किया है-पहले वाद के तीन प्रकार बतलाये हैं-व्यायावाद अागम(गुरुशिष्यों की चर्चा), गोष्ठीवाद (विद्वानों को मंत्र. परि० १२३ तथा १२४ में प्रागम तथा आगमामाम चर्चा) तथा विवादवाद (वादी-प्रतिवादी का मामयं नाबाद) का वणन है। प्रागम के वर्णन में अंगगत तथा अंगबाह्य बाद में बाद के चार प्रकार बतलात है-नाधिक वाद (नल. आगमी को परम्परागत सूची दी है तथा पागमाभास में विषयक चर्चा), प्रातिमवाद (कवि-प्रतिभा की परीना की वैदिक दर्शनों क ग्रन्थों के कुछ वाक्य उदाहरण के रूप में म्पर्धा), नियतार्थवाद (विशिष्ट नियमों पर प्राधारित उद्धृत किये हैं। बाद) नथा परार्थन वाद (प्रतिपक्षी के अनुरोध पर होनेवाला बाद)। बाद के चार अंग बतलाये है-सभापति, मनामद, कारण प्रमारणवादी तथा प्रतिवादी। प्रन्यन नथा पगाप्रमाणों के उपयुक्त मंदों को श्राचार्य ने भाव प्रमाण यह मंज्ञा दी है। नथा १४० १२४ से १२८ नक करण प्रमाण के भेद बतलाये है। इम में परि ६ से १०२ तक पत्र का परंपरागत वणन है। अपने पक्ष के किसी अनुमान को प्रस्तुत करने वाला किन्तु दव्य प्रमाण, क्षत्र प्रमाण नथा कालप्रमाण मिलत । पदार्थो के नाप तौल का विभिन्न रीतियों को द्रव्यप्रमाण गृढ शब्दों के कारण जिस समझना कठिन हो मा कोई कहा है । लम्बाई-चौडाई की गणना की रीतियां क्षेत्रप्रमाण श्लोक एक पत्र पर लिम्ब कर प्रतिपक्षियों के मन्मुग्ब प्रस्तुत में दी हैं तथा कालप्रमाण में समय-गणना का रानियां किया जाता था-इमे पत्र यह विशिष्ट संज्ञा दी जाता थी। बनलाई है। प्रतिपक्षी के लिए जरूरी था कि वह पत्र में लिखे श्लोक को उपसहारसमझ कर उस का उतर दे, अन्यथा वह पराजित समझा परि० १२१ में अन्य दर्शनों में वणित प्रमाग का जैन जाता था। बाद और जल्प प्रमाणव्यवस्था में अन्नाव करने को गतिमय बतलाई परि वार में है नया परि) १३. में अन्तिम प्रति है। चर्चा है। न्यायमूत्र में इन दोनो के जो लद.ण हैं उन का उपयुक्त मारांश में पष्ट होगा कि यात्रा भावमन लेखक ने शब्दशः ग्वएडन किया है। न्यायसूत्र के अनुसार का प्रमाणन परंपरागत जन द नोकष्टयों से जल्प वह है जिसमें इल, जाति प्रादि का प्रयोग होता है भिन्न है। अतः इसका विशेष अध्ययन हाना उचित है। तथा जिम का मुख्य उई श विजय प्राप्त करना होता है। हमें आशा है कि उनकी यह कृति हम हिन्दी अनुवाद के प्राचार्य के कथनानुसार इल, जाति प्रादि ग़लत साधनों का माथ शात्र हा विद्वानों क अग्ल कनार्य प्रस्तुत कर सकेंगे। अनेकान्त की पुरानी फाइलें अनेकान्त की कुछ पुरानी फाटलें अगिष्ट है जिनमे इतिहाम पुरातत्त्व, दर्शन और माहित्य के सम्बन्ध में खोजपूर्ण लेख लिखे गए है। जो पटनीय तथा सग्रहणीय है । फाइले अनेकान्त के ल गत मूल्य पर दी जावेगी, पोस्टेज खर्च अलग होगा। फाइले वर्ष ८, ९, १०, ११, १२, १३, १४, १५, १६ की है अगर आपने अभी तक नहीं मगाई है तो शीघ्र ही मगवा लीजिये, क्योंकि प्रतियाँ थोडी ही अवशिष्ट है। मैनेजर 'अनेकान्त' वीर सेवामन्दिर, २१६रियागंज, दिल्ली
SR No.538017
Book TitleAnekant 1964 Book 17 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1964
Total Pages310
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size16 MB
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