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________________ जैनग्रन्थ प्रशस्ति-संग्रह पर मेरा अभिमत जैन साहित्य और इतिहास की दिशा में अनेक वर्षा है। निःसंदेह पं. परमानन्द जी ने इस संग्रह में असाधासे ठोस एवं शोध-पूर्ण कार्य करने वाला माहिन्यक मंग्या रण परिश्रम किया है और सारी सामग्री के निष्कर्षों वीर संवा मन्दिर, दिल्ली से कई महत्वपूर्ण ग्रन्थों का को विधिवतू दिया है। डा. दशरथ शर्मा रीडर इतिहास प्रकाशन हुअा है । हाल में इस नम्था के द्वारा जिम महत्व विभाग दिल्ली यूनिवर्सिटी का अंग्रेजी में लिखा Preface के ग्रन्थ का प्रकाशन वा वह है 'जैन ग्रंथ प्रशस्ति संग्रह का भी ग्रंथ के महत्व पर अच्छा प्रकाश डालता है। द्विताय भाग' । इसका सम्पादन और संकलन इसी संस्था अपभ्रश भाषा की अनुपलब्ध रचनाओं के उल्लेखों, के चिरसी और समाज के बहु परिचित सुयोग्य विद्वान प्रस्तावना में आये हुए विशेष नामों की सूची और विषय पण्डित परमानन्द जी माम्बी ने बटे परिश्रम, अध्यवसाय मूची के अनन्तर १३५ पृष्ठों में मृल प्रशस्तियां दी गई हैं। एवं योग्यता के साथ किया है। उसके बाद अन्त में विभिन्न परिशिष्ट दिए गये हैं जो बड़े ही इस द्वितीय भाग में सप्ट्रभाषा हिन्दी की जननी अप- महत्व हैं और शोध कार्य में बडे उपयोगी सिद्ध होंगे। भ्रंश भाषा में जेन लवको द्वारा लिखे गए ११४ ग्रन्या की प्रशस्नियों का संग्रह किया गया है। इन प्रशनिया का एक समय था. जब प्राकृत के बाद अपभ्रश जन-माधाजहा मांस्कृतिक दृष्टि में बटा महत्व है वहां निहाम्पिक रण का भापा थी और वह देश के विभिन्न भागों में बोली दृष्टि में भी इनका उतना ही महत्व है । प्रत्येक प्रशस्ति में जानी थी । जैन लेग्वको ने दवा कि इस समय धर्म का ग्रन्य- यता, उपा रखने में प्रेरक. जहां वह रचा गया म्वरूप प्राकृत और संस्कृत के अलावा अपभ्रंश भाषा में उस स्थान नया जिम गजा के गज्य काल में वह बना उस भी कहा एवं समझाया जाय तो जन साधारण का बड़ा का नामालम्ब स्पष्टतया दिया गया है, जिसप न कालीन लाभ होगा । यथार्थ में जैन लेखकों का यह प्रारम्भ से ही धार्मिक धनि, गग्य का प्रभार और मामाजिक वातावरण प्रयन्न रहा है कि जनता की बोली में जनता को धर्म तस्व प्राति पतनी ही का परिचय मिल जाता है । पगिटुन का ग्वरूप समझाया जाय । अतः उस युग में इस भाषा में परमानन्द जी ने अपनी १५. गल की विस्तृत प्रस्तावना में भी उनके द्वारा संख्या बद्ध प्रचुर प्रथ लिग्वे गये हैं और उन सब बानी को बा मम पर उहापोह पूर्ण अपभ्रंश साहित्य को समृद्ध बनाया गया है । आज अपभ्रंश भापा का साहित्य अवेनाकृत जैन लेग्बकों का ही लिम्वा हा विचार प्रम्नत किया है । ग्रंथों और न्य-कायां का तो उपलब्ध होता है । इस माहित्य का इसलिये भी महत्व है उनले परिचय कराया ही है । साथ में प्रशस्निया में निहित उय मिमिक सामग्री पर से ग्रंथ-कारों के समकालीन कि गष्ट्रभाषा हिन्दी का उसी में जन्म हुआ है। इस दृष्टि राजाप्रो. धार्मिक श्रावक-श्राविकाओं -रचना- थानी, ग्रन्थ में प्रस्तुत ग्रंथ का प्रकाशन जहां अपभ्रंश भाषा को जन रचना समय और अनेक घटनाओं का भी उन्होंने मन्तुलित सम्पर्क में लावंगा वहां राष्ट्र भाषा हिन्दी के भगद्दारों को नंग में मुन्दर विश्लेषण किया । वस्तुतः अक्ली यह प्रस्ता भी समृद्र करेगा अत: वीर मेवा मन्दिर, उसके मंचालकों वना ही एक मा ठोस पनिहामिक पुस्तक बन गई है जो और सम्पादक का प्रस्तुत प्रयत्न निश्चय ही धन्यवादाह शोधार्थियों के लिए पथ प्रदर्शन का कार्य करेगी। है । इस अवसर पर वीर सेवा मन्दिर के प्राण वा. छोटे इस संग्रह में कुल १२२ अपभ्रश नधों को प्रशग्नियों लाल जी जन कलकना को नहीं भुलाया जा सकता है, तथा ३ पुष्पिकाओं का चयन किया गया है। भारती महा जिनका अदभुत शक्ति मूक प्रेरणा पाहिन्य माधना की नीव विद्यालय दिन्द्र विश्व विद्यालय काशी के प्राचार्य डा वासुदेव लगन और निरपेक्ष मौन-पवा उस प्रयन्न के पीछे निहित हैं। मैं तो समझना है कि उन्हीं की लगातार प्रेरणा से यह शरण अग्रवाल का प्रारम्भ में महत्वपूर्ण प्राक्कथन है। आपने प्राक्कथन में इस कृति का स्वागत करते हुए यह ग्रंथ आज प्रकाश में आ सका है। यथार्थ लिखा है कि-'५० परमानन्द जी ने तिल-तिल सामग्री ३ दिसम्बर १९६३ दरबारीलाल जैन कोठिया जोड कर ऐतिहासिक तथ्यों का मानों एक मुमेर ही बनाय काशी हिन्दू विश्व विद्यालय
SR No.538017
Book TitleAnekant 1964 Book 17 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1964
Total Pages310
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size16 MB
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