SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 35
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २ अनेकान्त सर्वोदय का अर्थ विनोबा भावे सर्वोदय एक ऐसा अर्थधन शब्द है कि उसका जितना सामने वाले की परवा किये बगैर और कभी-कभी उससे अधिक चिन्तन और प्रयोग हम करते जाएंगे, उतना ही छीन कर भी संग्रह करते हैं । प्रेम से भी अधिक कीमत अधिक अर्थ उसमें से पाते जाएंगे। धन को यानि सुवर्ण को हमने दे रखी है। ऐसी सुवर्णमाया __लेकिन उसका एक अर्थ स्पष्ट है कि जब भगवान ने दुनिया में फैल गई है। उसीका नतीजा है कि जो परम्पर इस दुनिया में मानव-समाज का निर्माण किया है तो मानव या समन्वय अामान होना चाहिए था, वह मुश्किल हो गया का एक दूसरे से विरोध हो या एक का हित दूसरे के हित है उस मेल की शोध में कई राजकीय, सामाजिक और के विरोध हो, यह उसकी मंशा कदापि नहीं हो सकती। आर्थिक शास्त्र बन गए हैं। फिर भी सब का हित नहीं कोई बाप यह नहीं चाहता कि एक लडके का हित दूसरे सध रहा है। लड़के के विरोध में हो। लड़कों में विचार भेद हो सकता है. हित-विरोध नहीं हो सकता भिन्न-भिन्न विचार होना पर एक मादी बात समझ लेंगे तो वह मधेगा । हरेक ऐसे अनेक विचार मिल कर एक पूर्ण विचार बन सकता है। दूसर की फिक्र रखे और अपनी भिक्र भी ऐसी न रखे कि इसलिए विचार-भेदों का होना जरूरी है। उसमें दोष नहीं, दूसरे को तकलीफ हो । यही कुटुम्ब में होता है। कुटुम्ब बल्कि गुण ही है, पर हित-विरोध नहीं होना चाहिए। का व न्याय समाज को लागू करना कठिन नहीं होना लेकिन हमने अपना जीवन ऐसा बनाया है कि एक चाहिए, बल्कि अामान होना चाहिए। इसी को सर्वोदय कहते हैं। के हित में दूसरे के हित का विरोध पैदा होता है । धन आदि जिन चीजों को हम लाभदायी मानते हैं, उनका ('सर्वोदय-संदेश से) मेरे देवता । तुमने नंदिनी के आने का प्रतीक्षा भी नहीं की, अंत में राजनंदिनी को बाहबली मिले, एकाग्र मुद्रा कहां हो, नाथ, तुम किधर हो । ठहरो, में पा रही हूँ, मुझे में ध्यानावास्थित, सीधे खडे, अग्खि बंद किए, मुनि साधना देव कर तुम अपना सारा बेराग्य भूल जाओगे।' में रत, उनकी आंग्वे खुलने की प्रतीक्षा में किंकर्तव्य विमूद किसी ने उसके पागलपन को रोकने की चेष्टा नहीं की राजनंदिनी अपने देवता के चरणों में प्रासन मार कर बैठ उसके पैरों के पाखों से रक्त की धारें घट रही थीं, और गई और समय के साथसाथ वह भी अचल हो गई। राह के पेड पौधों को हिलाहिला कर राज नंदिनी अपने बांधियां पाई, बरसात आई, गरमी से प्रासपास का प्रियतम का पता पूछ रही थी, 'बताओ, मेरे नाथ कहां हैं घायफूम तक झुलस गया किंतु न ही बाहबली की आंखें बताओ, नहीं तो में तुम्हें जड़ से उखाड़ डालूगी""नहीं खुली और नहीं राजनंदिनी में कंपन हश्रा समय के प्रभाव नहीं, तम भी पिया के त्यागे हए हो और अपने परिताप ने उसके शरीर को परिवर्तित करके मिट्टी का ढेर बना की ज्वाला में झुलम कर तुम जड़ हो गए हो, ठहरो, में एक दिया उस पर घासफस उग आए, लताओं का निर्माण तपस्वी के पास जा रही है, उसके तप प्रभाव से और उनके हश्रा और कोई चारा न देख कर वे लताएं बाहबली के प्रति मेरे प्रेम के प्रभाव से तुम फिर हरेभरे हो जानोगे अचल शरीर पर लिपट गई । सुम्हें भी तुम्हारे प्रियतम मिलेंगे।' मैसूर राज्य के श्रवणबेलगोला स्थान पर स्थित बाहराह में राजनंदिनीने जातिविरोधी जीवों को एक दूसरे बली गोम्मटेश्वर की ५७ फीट ऊंची वह वैराग्य की साकार के साथ क्रीडा में मोदमग्न देखा, सांप गरुड के साथ, हिरन पाषाण प्रतिमा श्राज भी वर्तमान है और उस पर लिपटी, सिंह के साथ न्यौले सर्प के साथ खेल रहे थे। चारों ओर अपने प्रीतम के रंग में रंग गई वे पाषाण लताएं भाज भी वायु में सुगंधि छा रही थी और सभी मोह की इस प्रचंड राग और वैराग्य के अपूर्व समन्वय का इतिहास कह रही हैं। ज्याला को मान नेत्रों में निरख रहे थे। सर्वाधिकार सुरक्षित (समाप्त)
SR No.538017
Book TitleAnekant 1964 Book 17 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1964
Total Pages310
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy