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________________ दिग्विजय ३१ भकाया और उसके बचनों के जो भी अर्थ निकलने थे उसकी भूल थी, इसके बाद जो समाचार वह सुनने जा उन्हें हृदयंगम करने की चेष्टा करते हुए मन ही मन उन्हें रही थी उसके लिए उसके पास और आंसुत्रों का पानी भविष्य में पालन करने की प्रतिज्ञा की। कहां से पाएगा? नहीं पाएगा, तो किस प्रकार उसके प्राने सांयकाल हो रहा था। सूर्य अपनी किरणें समेट कर वाले दुःश्व का निवारण होगा? कहीं और उदित होने जा रहा था, उसने इस दुनिया का अंत में वैजयंती नरेश ने कहा, 'महाराज भग्न को तमाशा दग्व लिया था, अब वह दृपरी दुनिया का तमाशा चक्रवर्ती पद दे कर विजेता बाहबली ने वैराग्य ले लिग देखेगा, किन्तु संभवतः उसे पंदह था कि वह इतना हृदय- है, बेटी।' ग्राही मनोरंजन कहीं और भी प्राप्त कर सकेगा या नहीं। पिता के ये शब्द सुन कर राजनंदिनी जहां की तहां मंनिकों की आंखों से प्रांमुत्रों की धार बह कर सूख जड़ हो गई, कुछ समझ में नहीं पाया कि वह क्या सुन गई थीं । कुछ लोगों ने बाहबली के साथ ही वम्य त्याग रही है. कछ समय तक प्राग्वे फाई शून्य में ताकती रही किया था, कुछ लोग भविष्य में करने की प्रनिज्ञा ले रहे थे, फिर महमा वह चिल्लाती हुई भागी : 'नहीं नहीं, ऐसा पूजा के उपकरण सजाए जा रहे थे । और कुछ लोग महा- नहीं हो सकता, मैंने सपने में भी तुम्हारी पूजा की है, बली बाहबली की आरती उतार रहे थे। मैंने तुम्हें सदा अपने हृदय में संजो कर रखा है - 'एक क्षण एक ओर वाहबली वन गमन कर रहे थे, दमरी और भी मैंने अपने मन को कहीं भटकने नहीं दिया है। संसार लाग्यों मनुष्य एक आंख से हंगत एक प्रांव से गेंने उन्हें में सबको अपनी अर्चना का फल मिलता है.""मुझे भी अन्तिम विदा दे रहे थे । विशाल की आंखों का पानी थमने मिलेगाह 'तुम इतने निर्मोही नहीं हो सकते..., और में ही नहीं पा रहा था और वज्रबाह उसके कंधे पर हाथ उपके साथ २ उपका म्वर भी लोप होने लगा। रखे उमे दिलासा देने का निष्फल प्रयत्न कर रहे थे। राजनंदिनी की दशा जिमने देखी उसने एक बार राजनंदिनी जब वापस कटक में पहुंची, अाकाश पर अपनी प्रांखों की कोरों को पोंछा, उसके पिता किं कर्तव्यचंद्रमा का प्राधिपत्य हो गया था, और तारागण उपके विमृढ हुए अपने दुर्भाग्य का तमाशा फटी आंखों दग्वन रहे, भाग्य पर एक विशाल सम्मेलन कर रहे थे। ज्योतिषी के शब्द उनके कानों में शीशे की तरह पिघलने लगे ___ पुत्री को वापस दग्व कर वैजयंती नरेश ठक में रह राजकुमारी के भाग्य में पति मुग्व नहीं है . 'राजकुमारी के गए. गह में कितनी दर जाकर क्या हश्रा होगा यह महज । भाग्य में पति मुम्ब नहीं है..." ही कल्पना कर लेने की बात थी, क्यों गजनंदिनी वैजयंती न पहुंच कर वापस था गई थी यह भी कोई नितांत लिपी राजनंदिनी को इस समय बंधु-बांधव किमी का विचार हुई बात नहीं थी, और जो बान इननी स्पष्ट थी उसका नहीं रह गया था। उसके प्रचंतन मन में केवल एक बात सुग्वद परिणाम मनुष्य के हाथों से कितनीर निकल गया जूम रही थी। उसने अपने ममम्त मनको एकाग्र करके था यह भी साफ ही था, उनके मुह से केवल इतना जिपको चाहा है उस में उसे स्यागन की शक्ति नहीं हो निकला : बेटी। सकती. अभी कुछ देर पहले उसने वैराग्य का महान स्वरूप राजनंदिनी को पिता पर क्रोध था, यह कांध केवल दवा था, अब वह राग की प्रचडना देख रहे थे । और लिर भुका रहे थे, क्या इस राग की भाग में वाग्य का तंज मान का क्रोध नहीं था, इसमें मल्लाहट और प्रबंचना के झुलस जाएगा? यही प्रश्न मबके मस्तिष्क में चक्कर काट शिकार का क्षोभ भरा हुआ था। किन्तु रथ से नीचे उतरते रहा था। ही बाप ने बेटी को गले लगा लिया और फूट-फूट कर रो पड़े, सारे दिन का मंचित संघर्ष इस रुदन में साकार हो सेना, कटक, बंधु और पिता को छोड़ कर राजनंदिनी कर मिल गया था । राजनंदिनी ने भी अपना भाव व्यक्त पागलों की तरह बनों में भटकती हुई बाहबली को ढूढने कर पाकर उसे आंखों की राह बहा दिया । किन्तु यह लगी "तुम अपनी नंदिनी को इननी सरलता से भूल गए,
SR No.538017
Book TitleAnekant 1964 Book 17 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1964
Total Pages310
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size16 MB
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