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________________ २८० अनेकान्त तामों का अवलोकन करके माणिक को दास्य-भावना में तुलसी आदि के समकक्ष कहें तो प्रत्युक्ति न होगी। माधुर्य भाव-हिन्दी के वैष्णव-भक्ति साहित्य में माधुर्य-भाव का समावेश अधिकांशतः सत्रहवीं शताब्दी से प्रारम्भ हुमा; तदनन्तर माधुर्योपासक हरिदासी, निम्बार्क, राधावल्लभ, ललित, श्री प्रादि सम्प्रदायों की बाढ-सी पा गई और प्रचुर साहित्य का निर्माण हमा। जैन दास्यभावना में वैष्णव-भक्तों से समानता रखते हुए भी जैन'भक्तों का माधुर्य-भाव उनसे कुछ भिन्न है तथा अपेक्षाकृत प्राचीन भी । भिन्नताएं इस प्रकार हैं १. वैष्णव मधुर-भक्तों का पाराध्य अपनी मालादिनी शक्ति के साथ लीला-हेतु वृन्दावन अथवा साकेतधाम में अवतीर्ण होता है। जिनेन्द्र की न तो अपनी कोई आह्लादिनी शक्ति है और न वह लीला-हेतु अवतार ही लेता है । वह तो सामान्य जीवों की तरह इस जगत् में अपने ही विशिष्ट गुणों से एक महत्वपूर्ण स्थान पा गया है। २. वैष्णव-मधुर-उपासकों को राम अथवा कृष्ण का लोक-रंजक रूप ही मान्य है किन्तु जैन-भक्तों को जिनेन्द्र का सत्य, शिवं, सुन्दरम् का समन्वित स्वरूप, अतः जहाँ के वैष्णव भक्त पाराध्य के सौन्दर्य पर रीझकर उसे निरखते रहने की चाह करके रह गये हैं वहाँ जैन-मधुर-भक्तों ने जिनेन्द्र के लोक-मंगलकारी स्वरूप को भी अपने लिए अनुकरणीय माना है। ३. वैष्णव-भक्तों ने माधुर्य-भाव के तीन भेद किये हैं-गोपी-भाव, पत्नी-भाव व सखी-भाव । जैन मधुरभक्तों में केवल पत्नी-भाव ही परिलक्षित होता है। ४. वैष्णव भक्तों की मधुर-साधना मे अष्टधाम और वर्षोत्सव लीलामों के चित्रण मे लौकिक शृङ्गार की-सी बू पाती है। जैन मधुर-भक्तों को अपने पाराध्य के सयोग का अवसर ही न मिला, फिर अष्टधाम और वर्षोत्सव लीलाओं का वर्णन वे कहाँ से करते ? पाराध्य का सान्निध्य पाने के लिए विरह और तड़पन ही जैन मधुरभक्तों का जीवन है। ५. वैष्णव भक्तों व सन्तों ने अपने पाराध्य से सीधा ही माधुर्य सम्बन्ध स्थापित कर उसका संयोग-सुख लूटा अथवा उसके विरह में आँसू बहाये ; जैन कवियों ने जिनेन्द्र से अपना माधुर्य सम्बन्ध व्यक्त करने के लिए प्राय' सर्वत्र ही राजमती को माध्यम बनाया है तात्पर्य यह है कि राजमती विरह-वर्णन मे ही जैनभक्तों की मधुर-भावनाजन्य टीस, तडपन अभिव्यक्त है। माणिकचन्द के पद-संग्रह मे 'राजमती-विरह के रूप में कई ऐसे पद संकलित हैं जिनमें क्षण-भर भी प्रियवियोग को सहने की सामर्थ्य मागिकचन्द में परिलक्षित नहीं होती। अब क्यों बेर हो, जदुपति नेमिकुमार प्रभु सुनि । किवित सुख स्वप्नेवत बीत्यो अब दुःख सुमेर हो। मैं अनाथ मोहि साथ निबाहो अब क्यों करत अबेर हो। मानिक प्ररज सुनो रजमति प्रभु राखो घरननि लेर हो। भक्ति के अन्य भाव-वात्सल्य व सख्य-माणिकचन्द के पदो में नहीं दिखाई देते। अनेकान्त की पुरानी फाइलें अनेकान्त की कुछ पुरानी फाइलें प्रवशिष्ट हैं जिनमे इतिहास, पुरातत्त्व, वर्शन और साहित्य के सम्बन्ध में खोजपूर्ण लेख लिखे गए हैं जो पठनीय तथा सग्रहणीय हैं। फाइलें अनेकान्त के लागत मूल्य पर दी जावेगी, पोस्टेजखर्च अलग होगा। फाइलें वर्ष ८, ९, १०, ११, १२, १३, १४, १५, १६, १७ वर्षों की है। थाड़ी ही प्रतियां प्रवशिष्ट हैं। मंगाने की शीघ्रता करें। मैनेजर 'अनेकान्त' वोरसेवामन्दिर २१ दरियागंज, दिल्ली।
SR No.538017
Book TitleAnekant 1964 Book 17 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1964
Total Pages310
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size16 MB
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