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________________ प्राचीन के जैनों की संघ व्यवस्था मथुरा | डा० ज्योतिप्रसाद जैन, लखनऊ ] उत्तर प्रदेश का प्रसिद्ध मथुरा नगर चिरकाल पर्यन्त जैनधर्म और उसकी सस्कृति का एक महत्वपूर्ण केन्द्र रहा है। मौर्य काल के प्रारम्भ से लेकर गुप्त काल के अन्त पर्यन्त लगभग एक सहस्त्र वर्ष का काल मश्रा जैन मध का स्वर्ण युग था और उसमे उसकी मध्यवर्ती तीन शताब्दियों (लगभग १०० ईसा पूर्व से सन ई० २०० तक) उनका चरमोत्कर्ष काल था। साहित्यिक धनु श्रनियों के अतिरिक्त मथुरा नगर के विभिन्न भागो तथा उसके आसपास के प्रदेश मे पुरातात्त्विक शोध योज मे प्राप्त विपुल सामग्री, और उसमे भी विशेष रूप मे बहुसंख्यक शिलालेख हम बात के जीवन्त प्रमाण है। मथुरा से अब तक लगभग अढाई मौ शिलालेख प्राप्त हो चुके है जिनमें से दो तिहाई के लगभग जैनो से संब पित है। उनमे ८० लाख ऐसे है जिनमे विविक्षित धर्मकार्यों के प्रेरक माधु और माध्वियों के नाम भी अकित है। इस प्रकार उस काल मे मथुरा मे विचरने वाले लगभग ६५ विभिन्न जैन मुनियों और २५ कामो के नाम प्राप्त होते है । साधु साध्वियो के नामाfee शिलालेखो मे ६५ ऐसे है जिनमे उल्लिखित साधु माध्वियों के गण, शाखा, कुल आदि का भी निर्देश है, इन शिलालेखो मे से ५१ तिथियुक्त भी है । पार्थि जिन लेखो मे केवल दान देने वाले श्रावक या धाविका का ही उल्लेख है वे इन लेयो मे सर्वाधिक प्राचीन मान्य किये जाते है और उनमें से अधिकतर संभवतया मौर्य शुभ काल लगभग (२००-१०० ईसापूर्व ) से सम्बन्धित हैं । जिनमे साधु साध्वियों के नाम तो है किन्तु उनके गरण, शाखा, कुल प्रादि का कोई उल्लेख नही है वे प्राय ईस्वी सन् के पूर्व और पश्चात् की दो पतियों के अनुमान किये जाते है। प्रथम शती ई० के अभिलेखों मे कही केवल 'गण' का, कही 'कुल' का और कहीं मात्र 'शाखा' का उल्लेख भी पाया जाता है । किन्तु जिन अभिलेखो मे गण, छाला और कुल, तीनों के ही स्पष्ट नाम साथ-साथ मिलते है वे निश्चित रूप मे कृषण कालीन धर्यात् मम्राट कनिष्क चतुर्थ राज्य वर्ष (मन ८२ ई०) के उपरान्त के है । इसमे प्रतीत होता है कि उससे पूर्व के ममरा के जैन साधुधो मे गण-गच्छ शाखा- कुल भादि का विशेष मोह नही था । यह भेद उनकी उदार एव समन्वयात्मक विचारधारा के धनुकम नहीं थे, भेदभाव के ही पोषक थे। वह सब तो मात्र जैन साधु थे और मथुरा के थे । इम प्रत्यक्ष तथ्य की घोषणा करना भी निरर्थक था । भेदभाव को प्रोत्साहन या प्रश्रय देने वाले दक्षिणी एवं पश्चिमी, दोनो ही दनों से वे पृथक थे । किन्तु जैसे जैसे मथुरा मे जैनधर्म का प्रभाव बना गया और उत्कर्ष होता गया उत्तर भारत के अन्य जैन केन्द्रों के मधुगण भी उसकी मोर अधिकाधिक धाकृष्ट होने लगे और यहाँ ग्राकर अपने-अपने अधिष्ठान या केन्द्र स्थापित करने लगे। उच्चनगर, वरण (मभवतया वरन जिसे उतर प्रदेश के बुलन्दशहर से चीन्हा जाता है. इसी का एक भाग उच्चनगर भी कहलाता था ), कोल ( उ० प्र० में अलीगढ के निकट कोल या कोइल), ग्रहिच्छत्रा (जिला बरेली का रामनगर), मकिषा (जिला फरुखाबाद मे) माध्यमिका ( राजस्थान में चिलौट के निकट नगरी), वजनगरी हस्तिनापुर, गढ ( बगाल ) इत्यादि मे भाकर मथुरा मे स्थायी हो जाने वाले इन माधुधो को पृथक् पृथक् चीन्हने के लिए उन्हे अथवा उनकी शिष्य परम्परा को संभवतया उक्त स्थानो के नाम सहित पुकारा जने लगा। शनं शनै इन साबु सघी म ये नाम रूढ होने लगे। और मभवतया उन सबसे स्वय को भिन्न सूचित करने के लिए ठंठ मथुरा वाले साधुगण अपने प्रापको 'स्थानिय कुल' का कहने लगे । 3
SR No.538017
Book TitleAnekant 1964 Book 17 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1964
Total Pages310
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size16 MB
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