SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 260
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ प्रोम् अहम् अनेकान्त परमागस्य बीजं निषिद्ध नात्यन्धसिन्धुरविधानम् । सकलनयविलसितानां विरोधमथनं नमाम्यनेकान्तम् ।। वर्ष १७ । किरण-६ । ___बीर-सेवा-मन्दिर, २१ दरियागंज, दिल्ली वीर-सेवा-मन्दिर, २१ दरियागंज, दिल्ली-६ वीर निर्वाण सवत् २४६१, वि० स० २०२१ 5 फरवरी । सन् १९६५ श्रीसुपार्श्व-जिन-स्तवन स्वास्थ्यं यदात्यन्तिकमेष सां। स्वार्थो न भोगः परिभंगुरात्मा ।, तषोऽनुषंगान्न च तापशान्तिरितीद मास्यद्भगवान् सुपार्श्वः ॥१॥ -समन्तभद्राचार्य 'यह जो प्रात्यन्तिक स्वास्थ्य है-वह विभाव परिणति से रहित अपने अनन्तज्ञानादिमय स्वात्म-स्वरूप में अविनश्वरी स्थिति है-वही पुरुषों का-जीवात्मा का- सच्चा स्वार्थ है--निजी प्रयोजन है, क्षणभगुर भोगइन्द्रिय-विषय-सुख का अनुभव-स्वार्य नहीं है, क्योकि इन्द्रिय-विषय-सुख के सेवन से उत्तरोत्तर तष्णा की-भोगाकाक्षा की-वृद्धि होती है और उससे ताप की-शारीरिक तथा मानसिक दुःख की-शान्ति नही होने पाती। यह स्वार्थ और अम्वार्थ का स्वरूप शोभनपावो-सुन्दर शरीराङ्गो के धारक (और इसलिए अन्वर्थ-सज्ञक) भगवान सुपार्श्व ने बतलाया है। भावार्थ- इस पद्य मे प्राचार्य समन्तभद्र ने सातवे तीर्थङ्कर सुपार्श्वनाथ का स्तवन करते हुए स्वार्थ और अस्वार्थ का जो स्वरूप निर्दिष्ट किया है, वह महत्वपूर्ण है। ज्ञानी जीवो का स्वार्थ स्वात्मोपलब्धि की प्राप्ति है । वे उसी की सम्प्राप्ति का निरन्तर प्रयास करते है । क्षणभंगुर इन्द्रिय-विषयों की ओर उनका झुकाव नहीं होता, क्योकि वे सन्ताप बढाने वाले हैं, शान्ति के घातक हैं, अतएव वह ज्ञानी जनो का प्रस्वार्थ है। भगवान सुपाश्वं ने उसी सम्यक् स्वार्थ को प्राप्त किया, और जगत् को उसी की सम्प्राप्ति का मार्ग भी बतलाया है।
SR No.538017
Book TitleAnekant 1964 Book 17 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1964
Total Pages310
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy