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________________ कविवर भाकको काव्य साधना १७३ अपार पुण्य लाभ होता है तथा सम्पदा एवं वैभव की प्राप्ति होती है । कवि ने रविवत के महात्म्य को निम्न शब्दों में वर्णन किया है । पारसनाह रविव्रत सार, सेवत नव विधि होइ अपार । नारि पुरुष जो मन धरि सुनई, नासइ पाप भाउ कवि भगई ।। भरो लोह दुख संकटु सहै। कुष्ट व्याधि जो पीड़ा हरे। विग्रह बेधी होय नारद, सुमिरत सेवइ पाम जिरगद ॥१४६।। रचना २४ तीर्थकरो के स्तवन से प्रारम्भ होती है । फिर वाराणसी नगरी और उसके नगर सेठ मतिसागर का वर्णन है । सेठ के यहाँ हीरे जवाहरात का काम होता था। वह धन सम्पन्न होते हुए भी प्रतिदिन जिन पूजन करता था और दान देने से तो एक क्षण के लिए भी विमुख नही हया। नगरी धनी बसइ बह लोग, कीजइ पान फूल कउ भोग। मतिसागर कोडी धज साह, अादर बहत करइ नर नाह ॥१॥ वरिणजे हीरा पदारथ लाल, बेचइ मोती सुरग प्रवाल । कसे कसौटी परखे दाम, आदर बहुत रायदे ताम ।।१६।। देव पूज नित भोजन करइ, राग दोष नवि मनमहि धरइ । समल कुटंब वहै अपार, स लहहि विषराय साधार ॥१७॥ विधि सुदान सुपाहि देइ, दश लक्षण को धर्म करेइ । जीव दया पालइ बहु भाइ, ताकी उपमा दोजे काइ ॥१८॥ उसी मतिसागर के सात पुत्र थे । सभी पुत्र दया. बान एवं बुद्धिमान थे । सबसे छोटे पुत्र को उसने पढने भेजा। व्युत्पन्न मति होने के कारण उसने सभी विद्याए सीख लीं। एक बार नगर के महस्रकूट चैत्यालय में जैन संत पाये तो नगर के सभी जन उनकी बन्दनाथं गये। मुनि श्री ने सभी उपस्थित श्रोतामो को धर्मोपदेश दिया तथा ससार की प्रसारता बतलाते हुए रविवत पालने के लिए निम्न विधि बतलाई सुदि अषाढ़ जब रवि दिन होइ सत सजम प्रारम्भह सोइ । खीर धार दीजहु मन लाई, सुपात्तहु दोजिहु दान वोलाई॥ वरस बरस दिन नव नववार, नवह वरस करहु इकसार। अथवा एक वरसि निकताय, बारह मास करह मन लाय ।। धान इक्यासी अब बिजोर, नीबू सरम नदाफल और। मारु सकति चुन फल करउ, पास जिरगद चलण प्रणुसरउ।। इतना फन अइसी विधि जारिण, नो घर देह मरावा वागि। हरि हरि बरस करहु इच्छ जोग, दुख कलक न व्यापइ रोग ।। मतिसागर के घर में दारिद्र ने डेरा डाल दिया। उसके सब मोती जवाहरात छिन गये । सेठ को बड़ी चिन्ता हुई। उसे अपने कार्यों पर पश्चाताप होने लगा। पौराणिक महापुरुषों के जीवन को याद किया। माता-पिता का दुखो देखकर उनका मबसे छोटा पत्र विदेश रवाना हो गया लेकिन पुत्र को भी विदेश प्रवास में अनेक दुख उठाने पड़े। रविवन पालने के कारण अाखिर उसका सकट दूर हो गया और उसे पहिले से भी अधिक सम्पत्ति प्राप्त हई । प्रागे कथा को भाउ कवि ने रोचक ढग से वर्णन किया है। कवि ने कथा मे धन की बहुत प्रशसा की है इस से कवि के जीवन का भी कुश अनुमान लगाया जा सकता है । कवि के शब्दों मे धन की प्रशंसा पढ़िये नासइ बुधि होइ तनु खीण, कहिये बुरे पुरिष धन हीण । धन विणु सेवगू सेव नही करइ, धन विनु नारि पुरिषु परिहरइ । धन विणु मान महत को होइ, नही कपूत कहइ सब कोइ। धन विणु परीर काम कराइ, धन विगु भोजन लूखी खाइ।। कवि को यह रचना चौपई छन्द मे है । पद्यो की संख्या सभी प्रतियो मे समान नही है। एक प्रति में १५३ हैं तो दूसरी में १५६ है। और इसी तरह प्रम्य प्रतियों में भी छन्द सख्या में प्रसमानता है। रचमा को भाषा सरल एवं प्रवाह रूप है। कवि ने कहीं कहीं पालइब करे। ताको
SR No.538017
Book TitleAnekant 1964 Book 17 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1964
Total Pages310
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size16 MB
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