SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 189
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १७४ सूक्तियों का भी प्रयोग किया है । दो उदाहरण देखिये (१) जो नर प्रभाग्यो खेती करई, बैल मरे कि सूका पड े । (२) जब दिन बुरे पड़त हइ भाइ, गुरा कहिया चौगुण वै भाइ ॥ कथा का प्रादि प्रन्त भाग निम्न प्रकार है आदि भाग श्री रिसहनाह पण विजई जिरगद, जा प्रसन्न चित्त होइ प्राणन्द । परणवह अजित पणासठ पापू दुख दालिद भउ हरै सतापु ॥ संभवनाथ तरणी युति करू, जह प्रसन्न भव दुत्तरु तरू । अभिनन्दन सेवहू सेवहु वरवीर, जा प्रसन्न पारोगि शरीर । अन्तिम छन्द प्रकान्त कारण कथा कररण मति भइ, तो यहू धर्मकथा पर मनपरि भाउ मुणो जो को सोनर सुरग देवता होइ ॥ १५६ ॥ नेमिनाथरास - नेमिनाथरास कवि की दूसरी रचना है जिसकी एक मात्र प्रति लेखक को प्राप्त हुई है प्रोर जो जयपुर के पाटोदी के मन्दिर के शास्त्र भण्डार मे संगृहीत है। पूरेरास में १५५ पद्य हैं। सभी चौपई छन्द मे है। नेमिनाथरास की मुख्य कथा में २२ वें तीर्थंकर नेमिनाथ के जीवन की संक्षिप्त घटनाओं का वर्णन निहित है । यह एक भावात्मक प्रबन्ध है जिनमे काव्य के नायक के विवाह एवं वंशग्य इन दो घटनाओं को प्रमुख स्थान मिला है। काव्य के सभी वर्णन सुन्दर एवं अनूठे हैं। काव्य में श्रृंगार एवं विरह दोनो ही रसों का समावेश है । जहाँ एक प्रोर राजुल के श्रृंगार भाव को पढ़ कर चित्त प्रसन्न होता है वहां उभरी विरह वेदना हृदय को को फाने वाली भी है। क्योंकि राजुल घोर नेमिनाथ के मिलन की वेला विरह एव शोक में परवर्तित हो गई थी। लेकिन उक्त वर्णन के प्रतिरिक्त काव्य में नेमिनाथ का शक्ति प्रदर्शन प्रात्मचिंतन तथा शिवा देवी एवं नेमि नाथ का सवाद आदि भी प्रति रोचक प्रसंग हैं इनमें काव्यत्व की अच्छी झलक मिल सकती है । कवि ने जगत के स्वरूप का हृदयहारी वर्णन किया है— धन जोवन गरवीयो गवार, प्रीतम नारि देखि परिवार । रहमान ज्यों यह जीउ फिर. छोटे एक एक सौ करइ ॥१५॥ अवतर कबहूँ स्वर्ग देव कबहू नरक घोर सो परं । कबहू नरक बहू सिरपच निपजं जीव करें परपच ॥५६॥ कहूं उत्तम कबहूं नीच, कबहूं स्वामी कबहूं मीच । कबहूं धणी निरघणी भयौ, इहि संसार फिरत जम गयौ ।। ५७॥ इधर नेमिनाथ ने भी वैराग्य धारण कर लिया और उधर राजुल जो कुछ समय पूर्व फूली नहीं समा रही थी, संसार की बात सुनकर मूति होकर गिर पडी नेमिनाथ के अभाव मे उसका सारा जीवन फीका हो गया । हार श्रृंगार तथा वंभव सभी दुखदाई लगने लगे । सुगनु कुवरि जांबे चौपासु माथी पुनि धुनि ले उसास ॥१००॥ आव तं दई कहा यह कियो, जिरण बिछोहु मोकहु दुख दियो । जिरा विनु घडी वरिस वरजाइ जिण विणु घर वाहिर न सुहाइ ॥ १०१ ॥ जितु बिनु मेरो फर्ट होयो, जिन बिनु जनमु प्रकारच जियो जिन दिनु जोवनु काजे काइ जिन विनुरुप लहु सवनाइ ।। १०२ ।। जिg बिपु नाहि सबै सिंगार, जियु बिनु सूनौ यह संसार जिरणवर गुरणगहि दिसा घरी, जिरावर बिना रहि कहां करौ ॥ १०३ ॥ इस प्रकार नेमिनाथरास एक सुन्दर काव्य है जिसके सभी वर्णन सजीव हैं। रास को भाषा ब्रज भाषा के अधिक समीर है। रचना में कवि ने अपने नामोल्लेख
SR No.538017
Book TitleAnekant 1964 Book 17 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1964
Total Pages310
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy