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________________ मामिक कहानी ...और प्रांसू ढुलक पड़े डा. नरेन्द्र भानावत, एम० ए०, पी० एच० मे०, जयपुर मित्र लोग टोलिया बनाकर जगह २ इन्हे घेरने के और महावीर लोट पड़े। लिए मोर्चावनी करते । कोई जलेबी उछालकर कहतामभिग्रह पूराहमा महीनों बीत गये घूमते घामते। याद है वर्तमान ! इसी तरह बचपन में गंद उसाल २ प्रतिदिन नई समस्याए सामने माती। कोई कहता यह 'कर जलेबी खाई थी।'कोई पत्तल में गुलाबजामन लेकर बहा घमक्कड है । इधर से उधर, उधर से इधर माता मोर स्नेह भरे शब्दो में कहता--'तम्.होया गया बराबर षमता रहता है। न कुछ देता है न कुछ लेता महावीर! पांव माह बीत रहे हैं और तम भोसले दौड रहे हो। देखो न ये गोल-गोल रस भरे जामुन । दूसरा प्रतिवाद करता है बड़ा तपस्वी! सुनते हैं उसी दिन 'डाल कामडी' खेलते २ तुमने पचास-साठ किसी राजा का लडका था पर राजसी ठाठ-बाट को गुलाब जामुन एक २ कर ऊपर से मुह मे झले थे।' पर टोकर मारकर भरी उमर मे यह साध बनकर निकल महावीर चुप । कोई प्रतिक्रिया नही। पडा । पाम ही खडी स्त्री बोल उठती-'मेरी यह बटोरी पच्चीस दिन और गुजर गये। महावीर के पास एक जीभ तो उस बूढी काकी की तरह जूठे पातल तक चाटने पट्टालिका की ओर बढ़ चले। मुनमान वातावरण अट्टाको लालायित रहती है पर इस युवक मुनि ने तो उम दिन है लिका की भव्यता और कलात्मकता पर व्यंग कर रहा नगर सेठ के छप्पन भोगो को प्रख भर के भी नहीं देखा, ॥ दखा, था। वे प्रकोष्ठ में पहुंचे तो उन्हे अपने अभिग्रह का चित्र है यह कोई न कोई विलक्षण पुरुष ।' उभरता सा दिखाई दियामहावीर सब सुनते, मुस्कराते और चल देते। जहा इयोडो के बीच एक अनुपम सुन्दरी खडी है। उसके भी जाते वहां उनके सामारिक पक्ष के सैकडों रिश्तेदार लावण्य का कटोग अपने भाप मे न समा सकने के कारण मान-मनुहार करते। कोई खीर-पूटी लेकर माता पौर वात्सल्य भरे शब्दों से कहता- 'बेटा भूखा न रह । यह फूट २ कर बाहर बह रहा है। उसकी देहस्थली मे कामार्य का वसन्त क्रीड़ा कर रहा है, पवित्रता की कोकिला कूक कंचन की काया राख बन जायगी। इसे खीर-पूड़ी की रही है और शालीनता की बयार रोम-रोम में कंपन भर माग में तपा-तपाकर कुन्दन बना। वे क्या बोलते? 'तपस्या ही पग्नि है, कष्ट ही रही है। वह रूप में रंभा और शील मे सती है पर उसके कसौटी है' कहकर चुप रह जाते ।। हापो में रग-बिरंगी मोहक चूड़ियों के स्थान पर कठोर कभी धेबर, बर्फी और लड्डू मे थाल मजाकर कोई लोहे की हथकड़ियां हैं, पांवों में छुप छनन२ की झंकार बहिन कहती-'भया ! रुक जा। यों न भाग। तब तो पैदा करने वाली पायलों के स्थान पर स्वतन्त्रता की तू ने मेरी लाइयों में राखी बाधकर मेरी रक्षा करने का अपहरण करने वाली बेड़िया है। मुखचन्द्र का सुषामान भार अपने कधो पर लिया था और माज भैया-दूज पर करने वाले 'नीलधन शावक से सुकुमार'घु घराले रेशमी तू बिना कुछ खाये पिये मुह मोड़ कर चला जा रहा है।' बालो के स्थान पर सिर मुहा हुपा है। शरीर पर तारों वे कोमल स्वर में इतना ही कहते- 'संसार मे कोई खचित नील परिधान के स्थान पर वल्कल है। वह निर. किसी का रक्षक नही । स्वय को मात्मा ही रक्षक और पराधिमा है। तीन दिन से भूखी है। पारणा के लिए भक्षक है। उबाले हुए उड़द के बाकले उसके हाथ में हैं, रहें भी
SR No.538017
Book TitleAnekant 1964 Book 17 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1964
Total Pages310
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size16 MB
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