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________________ अनेकान्त दान देने के लिए वह किसी प्रतिथि की राह में प्रसन्नता टिड्डी दल की भांति शत्र टूट पड़े है। खून की नदियां की पांखें गडाये हुए है। बह चली है। दुश्मन नगरी लूट रहे है। श्रीमन्तों की पर यह क्या? महावीर लोट पड़े। उनका यह तिजोरियो के ताले तोड़ दिये गये है । गरीबों की झोपअभिग्रह-चित्र अधूरा रहा। प्रसन्नता की मांखों में ड़ियां जला दी गई है। स्त्रियों और बच्चों को बन्दी सास्विक भावों के प्रांसू वहां छलछलाये नहीं। बना लिया गया है । सैनिक दैत्य बनकर नाच रहे हैं। लो घांखों में मांसू ढुलक पडे । यह क्या? चन्दना चौंक पडी। राजमहल में शत्र चन्दना का प्रायश्चित ही जैसे पिघल कर बह गया। घुस माये ? अन्तःपुर में हाहाकार मच गया। रथारोही वह अपने पाप को धिक्कारने लगी। सैनिक चन्दना और उमकी माता धारिणी को लिए बडे 'मेरे भाग्य ही खोटे हैं । भगवान भी मुह मोड़कर वेग से बढ़ा जा रहा है। चलते बने । जिनसे माशा थी वे भी किनारा कर गये। घनघोर जंगल मा गया। सैनिकका पशत्व उभर मैंने कौनसा अपराध किया? मैं जीवन भर अविवाहित पड़ा। धारिणी के रूप का लोभी बनकर वह उसके चारों रही। कभी किसी को धोका नहीं दिया । कभी किसी का पोर मडराने लगा । धारिणी ने शील की रक्षा के लिए दिल नही दुग्वाया। मैं कोई पतित नही, दृष्टा नहीं। अपनी जीभ खीच ली। फिर भगवान तुम क्यों चले गये? तुम तो दीनानाथ हो चन्दना काप रहा ह-वह भी जीभ खीचना चाहती है। पर रथारोही ने प्रागे बढ कर उसका हाथ पकड़ न? करुणा सागर हो न? अब कौन तुम्हें इन नामों मे । लिया है । वह ग्लानि से भरकर बोल रहा है-'बेटी अब पुकारेगा? मेरे पास गजमी वैभव नही, षटरस व्यंजन इस महापाप से मुझे कलकित न कर । मैं पापात्मा है, नही, मेरे शरीर पर स्वर्णाकार नही, मेरी मूत्ति मन मोहिनी नही । पर इनमे क्या ? तुम तो इनसे कोसों दूर दुष्ट हूँ। तू सता है, साध्वा है। 'मा पाहि मां पाहि ।' चन्दना ध्यानस्थ हो गई। मन उर्ध्वगामी हमा। हो न, तुम तो स्वय इन्हे लात मारकर निकले हो न? तुम तो शुद्ध-प्रबुद्ध वीतरागी हो न? फिर यह कोप-दष्टि उसने देवाक्यों ? भक्त की यह उपेक्षा क्यो ? भगवन् ... - एक सैनिक की पत्नी नागिन बनकर फुफकार रही है। बार फिर'.. ...... 'तु यह सौत कहा से उठा लाया ? मुझे यह नही चाहिये, मुझे चाहिये हीरे, जवाहरात, सोना, चांदी। इसे बेच मा। नही तो..... .. दो मांसू भोर डुलक पड़े। और दम मिनट बाद चन्दना बाजार में खडी है। उसे चन्दना का चिन्तन रुका नही। पूर्व-जीवन की स्मृ बेजान वस्तु की भांति बेचा जा रहा है। उसकी बोली तियां एक २ कर उसके मागे उभरने लगी लग रही है। बीस लाख मुहरों मे वह बिक गई है। 'चन्दना राजबाला है। अपने पिता की इकलौती एक वेश्या ने उसे खरीदा है । बेटी है। रत्नजटित झूले मे झूल रही है। नन्दन वन की वह काप गई है । उसने दृढ़ता से कहा-'मैं वेश्या समता करने वाले उद्यान में फूला के साथ हस रहा है, वत्ति नही करू गी । मेरा विचार प्रात्मा का विचार है. स माच नाच रही है, कोयल के साथ गा रहा है। शरीर का नही। मै रूप की रानी बनकर नहीं रहना सब उसे प्यार कर रहे है । उपके पाव धरती पर नही चाहती,मैं मरूप की पाराधिका बनकर जीना चाहती टिकते । वह हाथों हाथ उठाई जा रही है। . मन ने मचानक पल्टा खाया। उसके सामने युद्ध का चन्दना का चेहरा चमक उठा। उस पर दढ़ दृश्य मा गया । चम्पा नगरी पर कौशाम्बी के राजा निश्चय और प्रात्म-बल की रेखाएं खिंच गई । बन्दरो शतानिक ने, उसके ही मौसा ने धावा बोल दिया है। की एक टोली उसे नजर माई। उसने वेश्या को बह
SR No.538017
Book TitleAnekant 1964 Book 17 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1964
Total Pages310
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size16 MB
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