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________________ अपभ्रंश का एक प्रमुख कथाकाव्य डा० देवेन्द्रकुमार शास्त्री, रायपुर [डा० देवेन्द्रकुमार शास्त्री का यह निबन्ध शोधपूर्ण है। उन्हें 'भविसयत्त कहा' पर ही अभी पी-एच० डी० को उपाधि प्रागरा विश्वविद्यालय से प्राप्त हुई है। प्रस्तुत निबन्ध में 'भविसयत्त कहा' का साहित्यिक दृष्टि से पूर्ण परिचय दिया गया है। यदि अन्तिम दो-तीन पंराग्राफ जायसी के पद्मावत और जनकवि लालचंद लब्धोदय के पगिनी-चरित से तुलनात्मक हो जाते तो निबध की 'केवल परिचय' वाली रूक्षता का परिहार हो जाता। -सम्पादक अपभ्रश के प्रकाशित तथा उपलब्ध कथाकाव्यों में भी यह महत्त्व पूर्ण रचना सिद्ध होती है। 'भविसयत्त कहा' मुख्य कथाकाव्य है। यह काव्य बाईस इस कथाकाव्य के लेखक महाकवि धनपाल है, जिन मन्धियो मे और दो खण्डो में निबद्ध है१। इसमे श्रुत- का जन्म धक्कड वश में हुआ था। यद्यपि कवि धनपाल पंचमी व्रत के फल के वर्णन स्वरूप भविष्यदन की कथा के सम्बन्ध में अभी तक विशेष जानकारी नहीं मिल सकी का वर्णन है। इसलिए इसे 'थ तपचमी कथा' भी कहते है परन्त ग्रन्यकार ने अपना जो परिचय दिया है वह है। अपभ्रश तथा भारतीय अन्य भाषायो मे छोटी-छोटी मंक्षिप्त होने पर भी महत्वपूर्ण है। कवि के पिता का नाम धार्मिक कथानी की कमी नहीं है। हजारो की संख्या मे मायेसर और माता का नाम धन मिग्देिवी था। उन्हे इतिवृत्तात्मक कथाएँ मिलती है। परन्तु प्रबन्ध काव्य के सरस्वती का वर प्राप्त था३ । घर्कट या धक्कड जाति रूप मे लिखी गई कथाएं कम है। भविष्यदत्त कथा का वश्य थी। मुख्य रूप से यह मारवाड और गुजरात में प्रकाशन सबसे पहली बार हर्मन जेकोबी ने सन १६१८ बसती थी। दिगम्बर और श्वेताम्बर दोनों ही सम्प्रदाय मे मचन (जर्मन) से कराया था। यह काव्य प्रो० जेकोबी के लोग इस वश मे हुए है। धर्मपरीक्षा के रचयिता कवि को भारत-यात्रा में २१ मार्च, १९१४ ई० को अहमदाबाद हरिषेण भी इमी वश के थे। महाकवि वीर कृत 'जम्बूमे पण्य गुलाब विजय से प्राप्त हुआ था। भारतवर्ष में स्वामी चरित' में भी मालवदेश में धक्कड़ वश के तिलक इस प्रकाशित कराने का श्रेय सी०डी० दलाल और पी. महामदन के पत्र तवखड श्रेष्ठी का उल्लेख मिलता है। डी० गुणे को है। उनके प्रयत्न से यह प्रबन्ध काव्य मन् देलवाडा के वि० सं०१२८७ के तेजपाल वाले शिलालेख १६२३ मे गायकवाड पोरियन्टल सीरीज, बडोदा से मभी धर्कट जाति का उल्लेख है। । ऐतिहासिक प्रमाणों प्रकाशित हुआ था। पहली बार भाषा की दृष्टि से इसका मूल्याकन किया गया था और दूसरी बार देशी शब्द और २. धवकडवणिवसि माएसरह ममुभविण । काव्यत्व की दृष्टि से इसका महत्व कूत। गया। मेरी दृष्टि धसिरिदेवि सुएण विरदउ सरसइ संभविण । में काव्य-कला, प्रबन्ध-रचना और लोक-तत्त्वो की सयोजना - वही २२, ६ मे इस रचना का वैशिष्टय लक्षित होता है। अतएव अप- ३. चिन्तिय धणवाल वणिवरेण, भ्रंश-साहित्य में ही नहीं मध्ययुगीन भारतीय साहित्य में सरसइ बहलद्ध महावरेण । -वही, १,४ १. विरइउ एउ चरिउ धणवालिं, ४. प. परमानन्द जैन शास्त्री का लेख 'अपभ्रश भाषा विहि खण्डहिं वाबीसहिं सन्धिहिं । का जम्बूस्वामीचरिउ और महाकवि वीर, प्रकाशित -भविसयत्तकहा, २२, ६ 'भनेकान्त, वर्ष १३, किरण ६, पृ० १५५
SR No.538017
Book TitleAnekant 1964 Book 17 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1964
Total Pages310
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size16 MB
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