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________________ २६४ अनेकान्त के आधार पर यह वंश दसवी शताब्दी से तेरहवी शताब्दी इनमें थोडा-बहुत भी कही माम्म नहीं दिखाई पडना है। तक प्रसिद्ध रहा है। अन्तरग प्रमाणो से भी पता चलता जिमम किमी कवि का विचार कर उनकी अभेदता पर है कि कवि दिगम्बर जैन था। क्योंकि अष्ट-मूलगुणों का प्रकाश डाला जा सके । वर्णन, सल्लेखना का चतुर्थ शिक्षाव्रत के रूप में उल्लेख, रचना-काल मोलह स्वर्गों का वर्णन और अन्य मैद्धान्तिक विवेचन अत्यन्त पाश्चर्य है कि दसवी शताब्दी से लेकर दिगम्बर मान्यतामों के अनुकूल हुआ है। 'जेण भजिवि मोलहवी शताब्दी तक के जिन कवियों के अपभ्रश-काव्य दियम्बरि लायउ' से भी स्पष्ट है कि धनपाल दिगम्बर प्रकाश में आये है और जिनमे पूर्ववर्ती कवियो का उल्लेख मम्प्रदाय के अनुयायी थे। किया है उनमे धनपाल का नाम नही मिलता है। इसमे यद्यपि अद्यावधि धनपाल विरचित 'भविष्यदत्त कथा' यह पता चलता है कि कवि की प्रसिद्धि लोक मे अधिक ही एकमात्र रचना उपलब्ध हो सकी है परन्तु कवि की दिनों तक नहीं रही अथवा कवि अधिक दिनों तक पार्थिव प्रतिभा और योग्यता को देखते हुए सहज मे ही यह प्रतीत देह में नहीं रहा। परन्तु "भविमयत्तकहा" की प्रबन्धहोता है कि उसने अन्य रचनाएं भी की होगी। प्रतिभा रचना और काव्य-शैली का प्रचलन किसी न किसी रूप में के धनी धनपाल ने अपनी रचनामो का उल्लेख तो नहीं बगबर बना रहा है। किया है परन्तु इनकी अन्य रचनाएँ भी सभावित है। जर्मन विद्वान् हर्मन जेकोबी ने श्री हरिभद्र सूरि के "णेमिग्णाहचरिउ" धनपाल की भविमत्तकहा की भाषा को धनपाल नामधारी चार कवि तुलना करते हए लिखा है कि कम से कम दसवी शताब्दी १० परमानन्द शास्त्री ने धनपाल नाम के चार विद्वानो मे धनपाल रहे होगे । क्योकि जेकोबी के अनुसार हरिभद्र का परिचय दिया है । ये चारोही भिन्न-भिन्न काल के मूरि नवमी दाताब्दी के उनगर्द्ध के कवि है। परन्तु मुनि परस्पर भिन्न कवि एव विद्वान् है। इनमें से दो मस्कृत जिनविजय जी के अनुमार वे पाठवी शताब्दी के है जो के कवि थे और दो अपभ्र श के। सस्कृत के कवि धनपाल कई प्रमाणो मे निश्चित है। प्रो० जेकोबी के विचारो मे गजा भोज के प्राश्रित थे। इन्होने दसवी शताब्दी में दोनों नेगेटिव लिटरेचर है और हरिभद्र की भापा धनपाल 'पाइयलच्छी नाममाला' की रचना की थी। दूसरे धनपाल की भाषा मे बिलकुल अलग है। हरिभद्र की भाषा पर तेरहवीं शताब्दी के सस्कृत कवि है । उनके द्वारा लिग्वित प्राकृत का प्रभाव अधिक है। दोनों की शंली भी भिन्न 'तिलकमजरीसार' नामक गद्य ग्रन्थ का ही अब तक पता। है । धनपाल से हरिभद्र की शैली उदात्त है । इस प्रकार लग पाया है । तीमरे धनपाल अपभ्र श भाषा मे लिखित भापा की दृष्टि मे जर्मन विद्वान् ने जो निष्कर्ष निकाले थे 'बाहबलिचरित' के रचयिता है जिनका समय पन्द्रहवी वे वास्तविकता से परे ही जान पड़ते है। उनके विचारों शताब्दी है। ये गुजरात के पुरवाड-वश के प्रधान थे। का विश्लेपण करते हुए सी०डी० दलाल और पी० डा. इनकी माता का नाम सुहडादेवी और पिता का नाम मेठ गुणे ने लिखा है कि धनपाल की भाषा, प्रा. हेमचन्द्र के सहडप्रभ था६ । चौथे धनपाल अालोच्यमान मुख्य कथा व्याकरण में प्रयुक्त अपभ्र श भाषा से प्राचीन है। उनकी काव्य के लेखक धक्कड़वश के कवि थे। इस प्रकार चागे धनपाल नामधारी कवियो का समय अलग-अलग है। ७. भविसयत्तकहा (स० दलाल और गुणे) की भूमिका, चारों ही भिन्न काल के विभिन्न कवि एव लेखक थे। पृष्ठ ३।। ८. डा. हर्मन जेकोबी द्वारा लिखित "इण्ट्रोडक्सन टु द ५. वही, अनेकान्त, किरण ७-८, पृ० ८२ भविसयत्तकहा" अनु० प्रो. एस. एन. घोषाल, ६. गुज्जरपुरवाडवशतिलउ मिरि मुहडसेट्टि गुणगणणिलउ। प्रकाशित जर्नल भाव द मोरियन्टल रिसर्च इंस्टीट्यूट, तहो मणहर छायागेहणिय सुहडाएवी णामे भरिणय । बडौदा, जिल्द २, मार्च १९५३, सख्या ३, पृष्ठ -बाहुबलिचरित की अन्तिम प्रशस्ति । २३८-३९ ।
SR No.538017
Book TitleAnekant 1964 Book 17 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1964
Total Pages310
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size16 MB
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