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________________ २६२ भनेकान्त की खिचडी-इन वस्तुगों को धूतों ने यज्ञ में प्रचलित तीर्थङ्करों के काल से हिंसापूर्ण यज्ञ का प्रतिरोध होता कर दिया है। वेदों में इनके उपयोग का विधान नही है। रहा । हिसा के जो संस्कार सुदृढ हो गए थे, वे एक साथ उन धूतों ने अभिमान, मोह और लोभ के वशीभूत होकर ही नहीं टूटे । उन्हें टूटते-टूटते लम्बा समय लगा। उन वस्तूपों के प्रति अपनी लोलुपता ही प्रकट की है१। तीर्थकर अरिष्टनेमि के तीर्थ काल में रिमक-यन के जैन-साहित्य का उल्लेख है-ऋषभपुत्र भरत द्वारा विरोध में प्रात्म-यज्ञ का स्वर प्रलल हो उठा था। श्री स्थापित ब्राह्मण स्वाध्यायलीन थे। फिर बाद में उनका कृष्ण, जो अरिष्टनेमि के चचेरे भाई थे, आत्म-यज्ञ के स्थान लालची ब्राह्मणो ने ले लिया। महाभारत मे भी प्रन्पिादन मे बहुत प्रयत्नशील थे । अरिष्टनेमि और कृष्ण ऐसा उल्लेख मिलता है। वहाँ लिखा है-प्राचीनकाल के दोनो के समवेत प्रयत्न ने जो विशेष स्थिति का सूत्रपात ब्राह्मण सत्य-यज्ञ और दम-यज्ञ का अनुष्ठान करते थे । वे किया, उसका परिणाम भगवान महावीर और बुद्ध के परम पुरुषार्थ-मोक्ष के प्रति लोभ रखते थे। उन्हें धन की अस्तित्वकाल में संदृष्ट हुआ। प्यास नहीं रहती थी। वे उमस सदा तृप्त थ । व प्राप्त राजा विचरन्नु का वह स्वप्न साकार हो उठा-- वस्तु का त्याग करने वाले और ईष्यद्विप से रहित थे। धर्मात्मा मन ने सब कामों में अहिंसा का ही प्रतिपादन वे शरीर और प्रात्मा के तत्त्व को जानने वाले पोर आत्म किया है। मनुष्य अपनी ही इच्छा से यज्ञ की बाह्य वेदी यज्ञ परायग थे । वे ब्राह्मण वेद के अध्ययन में तत्पर रहते पर पशुओं का बलिदान करते है। विद्वान पुरुष प्रमाण के थे। स्वयं सन्तुष्ट थे और दूपरों को सन्तोष की शिक्षा द्वारा धर्म के सूक्ष्म स्वरूप का निर्णय करे। अहिमा सब देते थे। धर्मों मे ज्येष्ठ है । यह जान वेद की फल-श्रुतियो-काम्य वश्य तलाधार ने उक्त बात ब्राह्मण ऋषि जाजल से कर्मों का परित्याग कर दे। सकाम कर्मों के प्राचरगा को कही। इसमें उस प्राचीन परम्परा की सूचना है जिसके अनाचार समझ उनमे प्रवृत्त न हो। अनुयायी ब्राह्मण भी हिसा-प्रधान थे । उछ वृत्ति ऋषि के यज्ञ मे धर्म ने मग का रूप धारण मात्म-यज्ञ कर यही कहा था-अहिसा ही पूर्ण धर्म है। हिसा नमि, अरिष्टनेमि, पार्श्व और महावीर-इन चार अधर्म है। "सुरा मत्स्या मधु मासमासव कृसरोदनम् । धूर्त. प्रवर्तितं ह्य तन्नेतद् वेदेषु कल्पितम् ।।" १. महाभारत, शान्तिपर्व, अध्याय २६५, श्लोक ५-७ १. महाभारत, शान्तिपर्व, अध्याय २६५, श्लोक ९-१० “अहिसा सकलो धर्मो हिसाधर्मस्तथाहितः।" २. महाभारत, शान्तिपर्व, अध्याय २६५, श्लोक १८-२१ २. महाभारत, शान्तिपर्व, अध्याय २७२, श्लोक २० अनेकान्त के ग्राहक बनें 'अनेकान्त' पुराना ख्यातिप्राप्त शोष-पत्र है। अनेक विद्वानों और समाज के प्रतिष्ठित व्यक्तियों का अभिमत है कि वह निरन्तर प्रकाशित होता रहे। ऐसा तभी हो सकता है जब उसमें घाटा न हो और इसके लिए प्राहक संख्या का बढ़ाना अनिवार्य है हम विद्वानों, प्रोफेसरों, विद्यार्थियों, सेठियों, शिक्षा-संस्थानो, संस्कृत विद्यालयों, कालेजों और जनश्रुत को प्रभावना में श्रद्धा रखने वालों से निवेदन करते हैं कि वे 'अनेकान्त' के प्राहक स्वयं बनें और दूसरों को बनावें।
SR No.538017
Book TitleAnekant 1964 Book 17 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1964
Total Pages310
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size16 MB
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