SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 96
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ भव्यानंदपंचाशिका-भक्तामर स्तोत्र का अनुवाद धन्नि वह धरि जिहि तरी अवतार भयौ नग माता जिहि तौमौ सुन जाइयो । ब्रायन के शतशत एत्र जनै हु। तब नरे नौ समान कौ का रूपगुन पाइयो । कलंक सहित और रहित कलंक तुही ज्ञान नरे नगरे भाव तार पाइयो । धनुदाम दिसा नछिन जननहारि प्राचीव दिशा को समझाए रचि राइयो ॥२२॥ तुम को मानन मुनि परम पवित्र व श्रादिग्य वरण जैसी निर्मलु इलक मैं । तुम्हारे अनंत गुन विचार विचारि उर नननण मन्यु ने जीनत पत्नक में । मिथया नमकै हो तुम महाइ हरण हार नार्थ साधु से तम्है पदा ललक में। अनुदाय नाही कोउ मिउ और पंधु दयम् मन क नाथ नेरा ये बलक में ।। छउ मत पुराण करांण वेद वेदिका में पत र महन तो पौ इ। को कहन है। नुम अभिनाशी विभु अनित असंपि नाथ अनादि अगोचर यगोचर रहन है ।। ब्रह्म र ईश्वर ही मनंग केन जोगीश्वर विदित तुम्हारे मर जोग निहवन है। धनुदाम हु के प्रभु एक र अनेक हौ जू जान प विमान विवक को गहन है ॥२४॥ तुम ही हो बुन्द्र देव विबुधनि पृजनीक तुम ही हो सकर नियंक के करण जू। तुम ही विधाता विधि विधान जाननहार तम भगवान पुरुषोतम वरण ज ।। यकल देव मधि देवत्न गनु हो नेरी नागगण मृर शशि तरी प्राभा नमन । धनुदाम एक तू त्रिलोक योभा मामीयन नीनों लोकरी मामा वरण-वरण जु ।।२।। नम को नमामि त्रिभूवन की प्रारति हर तमको नगामि त्रिभूवन के भूषण न । नुमको नमामि त्रिजगत के परम ईस तुमको नमामि त्रिजगन नम शोषण » ।। नुमको नमामि जन्मा मरण हरण व्याधि नुमको नमामि त्रिजगत के पोषण न । धनदास जन्म-जन्म न वै वार-चार महा मटनहार यकल दापण ज ॥२६॥ यह में सुनी हो नाथ अापने वाना तुम से गया धुमि संदेह पार पाइयो। ज जन तुम्हारे गुन जानत है नीक कर नलिन दोष निन नाक के गवइयो ।। नइ दोष विहरि विरि प्राणी प्रथाकै निनह मग दोटि उनिह के सग धागज । धन्दाम हुसे अपराधानिमा रहै नागि नुम प्रानि यावानि के सुपने न पाइयो ।।२।। नो ममोसरण मधे माभीय अशोक वृट नातारी मराजत हो तीनो लोक निज़ । कचन बग्गा सापा चितामणि फल नाके पनि की दुनि यि हू थे अनि गनि ज ।। सीतल मद मुगंध विविधि वहति वाद सुपढाई यग्य पयवहा को प्रति । धनुदास यह मवु प्रभु को पुन्य प्रताप कहयौ म परत सीमानय की मनि ज़ ।।८।। तुम नापै मोहीयन मोहिवे लाइक प्रभु तुम्हार वयटै नाथ मिनायन गर्ने त । कचन की जोति पचै मनि को उद्यान ताप तुम्हार तन की प्राभा अधिक विराजे ज ।। उदयाचल के मीय परमानौ सुप्रभान रविको उदय मी जगत में प्राज ज । धनुदाय यह मत् प्रभुको पुन्य प्रताप देपन ही बने मु नौ कहन न छान ज ॥२॥ कुन्द दुनि उज्जल पीस पंचवठि चौर ढारत भावक इन्मादिक देव ग्राइक । कंचन दीप्ति देह तापर विराजे प्रति शशिकी किरणि मानी नागी रवि जाटके ।। कनक मुमेर य चौह को प्रामुपामु छोरोदधि नीम मानो-स्तु सभाइकै । नुधदास यह पथ प्रभुको पुन्य प्रतापु कहयो सुपरनु कम कटु गन पार के ।। ३ ।।
SR No.538017
Book TitleAnekant 1964 Book 17 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1964
Total Pages310
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy