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________________ ८८ अनेकान्त नुहार बदन दुति अनि ही उदिन अत मुर नर उम्ग के लोचन हरनि है। जाकी एक संष कली त्रिभुवन जाति जीन रजनी वापर सदा उदकी करनी है । कोउ कह चंदनी को कलंक मलीन फीकी सूर के मदन सेतु तु सो डरनि है। धनुदाम कहा प्रभु सब के अंमृत श्राची कहा वह बिलंगिनी करता जरनि है ॥१३॥ मंपूरण मंडल शशिकं सब स्वामी तुम कलाक समूह त्रिजगत यह जानीयौ । तुम्हारे अनत गुन जहा नहा न्यापि रहे परम पवित्र ने पुराणणि वषाणियो । नह गुन सुमिरि-सुमरि साधु पार भये जौ तौ उनि मन वच हु के उर पानीयौ। धनुदाम वेह गुन क्यों न श्रापु हृद धरौ भटक्यौ ही नौलौ बौलौ ररण प्रमानीयौ ॥१४॥ नाही अचरजू अनि तुम्हारे मन की गति चली न विकार मारग को प्रभु प्यारेज। निदश की अंगना अनेक सोभाश्र पुर्क के नटी प्रागयो भाई विद्या ठटिक पषारे ज॥ नाहि देष छिनु मनु हल्यौ न हरप नेज नीयतह पाहि यह गुननि तुम्हारे ज । धनुदाम कामरूप वनु प्रल को प्रभु मंदारचल की शिषाह दहै विचार जू ॥१२॥ परम जोतीश्वर रूप जान त्रिजगत भूपति ह लोक दीपक दिपन त्रिभुवन में। यंगुन कलिमा धूम नाहिन मदन तेरे वाइ रूपी क्रम सने न द्रवन मै॥ यह नौ दीपक एक खाम्मा ही बुझाइ जाइ किनेकु प्रतापु या बहनि के सूचन में। धनुदास प्रभु तुम महा हौ प्रनापु पुज पनि चित्र करौ छिनक वन में ॥६॥ रवि नौ दिन ही पति तुम तिहूलोकपनि ताकी उपमा क्यों नाथ तुम क्या बताइयो । वाको रिपु गहु तुम रिपुर्न नाप करि उद्योन अनादि वह अंभोधर छाइयो । वह तो विनाशी निशि तुम अविनाशी प्रभु वह तो मित कला तुम मुपदाइयो । धनुदास · विट्टकी क्यो ने देब छवि नी सं रवि काज्यौ क्यों न कमलु कहाइयो ॥७॥ जमी तुव मुष जाति अनंत कलानि हो नसी माना तरी नाथ तो ही कह मोहीय । नियसय उर्दकारी मोह महातमहाग राह की न गम्य नाके वारिदल द्रोहीय ॥ पूरण शशिकौ बिंबु तुव बदनार बिंदु विदिन अपूरनु सु दे मनु मोहीयो। धनुदाम से राकापति सौ तू · करि नर पद कहा है चकोर क्यो न हो हीयो ॥ ॥८॥ तुम्हार वदन रूपा शशिक्यौ चाहिज उर्द या ममि मूरको उदीत भयो के मून भयो। से रवि नेज प्रागै दीपकु वारी न वा अं यारो हुनी ज़ भारी वाही रविथ गयो । आदि अन अवै तिहाकाल तुव भाल प्रभा जगमग जाति सुतौ ही हु जगमै जयौ। धनुदाय भई परपक्च जब वन सालि मेघन वगणे न बग्घे तौका अभेदयौ ॥१६॥ जस तेरी जान है कृतावकामी प्यारे प्रभु श्रीपी काहु और माझ निम न दवाये। नब मान माझ नानौलोकसं अनेक लोक नाकी तुही जाने व ती ते ही अवरषायो । हरि ब्रह्मादि पुलंदर कहावं देव नेउ नौ मकल म्वामी ने ही लिपि लेवीयौ। धनुदाय कहा महामान को प्रतापु मभुइ काकी मिरि नाहि कैस हिन पेषीयौ ॥२०॥ मापने मन वर देष में सकल देव हरिहरब्रह्मादि पुलंदर समान के। जमा कर मरो मन मानों तुम चरण मी मी मनु मान नहीं दर्ष मुप ांन के । मुष अग्र भाया पायी कह पीर कह नीर तं नीरसु पीर प्राण भए प्राण के । धनुदाम नाह। काउ मनको हरणहार नम हा है प्रभु मर वगना जिहांन के ॥२॥
SR No.538017
Book TitleAnekant 1964 Book 17 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1964
Total Pages310
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size16 MB
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