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________________ 'समयसार' नाटक २०५ वह गायन और नृत्य में लीन होकर प्रानन्द मे सराबोर उसके गुणो-पर्यायो की परम्परा भी आदि काल से चली पा रही है। जीव अपनी गुण पर्यायो को लेकर नृत्य करता पूर्वबन्ध नास सो तो संगीत कला प्रकास, है। उसका वह नृत्य विलक्षण है नव बन्ध षि ताल तोरत उछरिक। अंसे वट वृक्ष एक, तामै फल है अनेक, निसंकित प्रादि प्रष्ट अंग संग सखा जोरि, फल फल बह बीज, बीज बीज बट है। समता प्रलापचारी कर सुर भरिके॥ वट माहि फल, फल माहिं बीज तामै वट, निरजरा नाव गाजे ध्यान मिरवग बाजे, को जो विचार, तो अनंतता प्रघट है ।। छक्यो महानन्द मै समाधि रीझि करिक तसे एक सता मै, अनन्त गुन पर जाय, सत्तारंग भूमि मै मुकत भयो तिहूँ काल, पर्ज मैं अनन्त नृत्य तामैं अनन्त ठट है। नाचं शुद्ध दृष्टि नट ग्यान स्वांग परिकं ॥ ठट में अनन्त कला, कला में अनन्त रूप, प्रात्मा ज्ञानरूप है और ज्ञान तो समुद्र ही है, जब रूप मै अनन्त सत्ता, ऐमो जीव नट है ॥ वह मिथ्यात्व की गाट फोडकर उमगता है, तो त्रिलोक इस मसार रूपी रंगशाला में यह चेतन जो विविध में व्याप्त हो जाता है। इसी को दूसरे शब्दो में यों कहा भाति के नृत्य करता है, वह अचेतन की मगति से हो । जा मकता है कि जब प्रात्मा मिथ्यात्त्व को तोडकर केवल तात्पर्य है कि अचेतन उमे ममार में भटकाता है। चेतन ज्ञान प्राप्त कर लेता है तो ब्रह्म बन कर घट-घट में जा का समार मे भटकना ही उसका नाचना है। यदि अचेविगजता है। इसी को कवि ने एक रूपक के द्वाग प्रस्तुत तन का नग छूट जाय तो उमका यह नृत्य भी बन्द हो किया है । रूपक में प्रात्मा को पातुरी बनाया गया है। जाय । इसी को कवि बनारमीदास ने लिखा हैवह वस्त्र और प्राभुपणो गे सजकर गत के ममय नाटय- बोलत विचारत न बोलेन विचारे कछु, शाना में, पट को प्राडा करके पानी है, तो किसी को भेख को न भाजन पै भेख को धरत है। दिखाई नही देती, किन्तु जब दोनो प्रोर के शमादान ठीक ऐसो प्रभु चेतन प्रचंतन की सगति सौं. करके पर्दा हटाया जाता है, तो मभा के मब लोग उमको उलट पुलट नटवाजो सो करत है। भलीभाति देख लेते है। यही दशा मान्मा की है जब चेतन मचेतन की मगति छोड दता है, तो वह जैसे कोऊ पातुर बनाय वस्त्र प्राभरन, उम नाटक का केवल दर्शक भर रह जाता है, जो भ्रमप्रावति खारे निसि पाडौ पट करिके। युक्त, विशाल एवं महा अविवेकपूर्ण अवार्ड मे अनादिदुहुँ ओर दोवटि संवारि पट दूरि कोज, काल में दिखाया जा रहा है । यह अग्वाड़ा जीव के घट सकल सभा के लोग देख दृष्टि परिकं ।। (हृदय) में ही बना है। वह एक प्रकार की नाट्यशाला तस ज्ञानसागर मिथ्याति प्रथि भेवि करि, है। उममे पुदगल नत्य करता है और वेष बदल बदल कर उमग्यो प्रगट रह्यौ तिहूँ लोक भरिकं । कौतुक दिग्वाता है। चिन्मूरति जो मोह मे भिन्न और ऐसो उपदेस सुनि चाहिए जगत जीव, जड मे जुदा हो चुका है, इस नाटक का देखने वाला है। शुद्धता संभार जग जाल सौ निसरिक ॥ अर्थात चेतन मोह और जड से पृथक् होकर शुद्ध हो जाता जीव एक नट है और वह वट-वृक्ष के समान है। वट- है, प्रत वह सासारिक कृत्यों को केवल देवता भर है। वृक्ष में अनेक फल होते है, फल में बीज होते है और उनमे सलग्न नही होता । यह रूपक इस प्रकार हैप्रत्येक बीज में नट-वृक्ष मौजूद रहता है। बीज मे बट या घट में भ्रम रूप अनादि, पौर वट में बीज की परम्परा चलती रहती है। उसकी विशाल महा अविवेक अखारौ। अनन्तता कम नहीं होती। इसी भाति जीवरूपी नट की तामहि और स्वरूप न दोसत. एक सत्ता मे अनन्त गुण, पर्याएँ और कलाएँ है । जीव और पुग्गल नत्य कर प्रति भारी।
SR No.538017
Book TitleAnekant 1964 Book 17 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1964
Total Pages310
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size16 MB
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