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________________ जैन दर्शन और उसकी पृष्ठ भूमि पुण्ड, वंग और चेरपाद प्राय सीमा के अन्तर्गत नहीं बेवात्य अर्थात् प्रब्राह्मण क्षत्रिय कहलाते थे। वे गणतन्त्र पाये थे।' राज्य के स्वामी थे। उनके अपने पूजा स्थान थे, उनको शतपथ ब्राह्मण में विदेह के राजा जनक का बार-बार प्रवैदिक पूजा विधि थी, उनके अपने धार्मिक गुरु थे। उल्लेख पाता है। उसने अपने ज्ञान से सब ऋषियों को वे जैनधर्म और बौद्धधर्म के प्राथयदाता थे । उनमें हतप्रभ कर दिया था। पाली टीका परमत्थ जोतिका महावीर का जन्म हुआ था, मनु ने उन्हें पतित बत(जि० १, पृ० १५८.६५) में लिखा है कि विदेह के लाया है। जनकवश का स्थान उन लिच्छवियों ने लिया, जिनका एक बात और भी ध्यान देने योग्य है । वात्य का राज्य विदेह का सबसे अधिक शक्तिशाली राज्य था, मर्थ होता है घुमक्कड़, जो एक स्थान पर स्थिर होकर न तथा जो बज्जिगण के प्रमुख भागीदार थे। ये लिच्छवि रहता हो और वज्जिगण का वज्जि शब्द भी व्रज धातु काशी की एक रानी के वशज थे। इससे प्रकट होता है १ से बना है जिसका अर्थ होता है चलना। वज् से ही कि काशी के राजवंश की एक शाखा ने विदेह में अपना परिव्राजक शब्द बना जो साधु के अर्थ मे व्यवहृत राज्य स्थापित किया था (पोलिटिकल हिस्ट्री प्राफ होता है। एनिस एण्ट इण्डिया, पृ०७२)। डा० हावर ने लिखा है-प्रथर्व का० १५, सूक्त उपनिषदों के कतिपय उल्लेखों के प्राधार पर डा. १०.१३ मे लौकिक प्रात्य को प्रतिथि के रूप में देश में राय चौधरी का मत है कि विदेह राज्य को उलटने में घूमते हुए तथा राजन्यों मोर जन साधारण के घरों में काशीवासियो का हाथ था क्योकि काशीराज भजातशत्र. जाते हुए दिखलाया गया है। तुलना से यह सिद्ध किया विदेहराज जनक की ख्याति से चिढ़ता था। इसी के साथ जा सकता है कि प्रतिथि धूमने फिरने वाला साधु ही हमें यह भी स्मरण रखना चाहिये कि ईस्वी पूर्व ८७७ मे है।........"प्राचीन भारत में एक ही व्यक्ति ऐसा है काशीराज के घर में जैनधर्म के तेईसवे तीर्थकर पावं. जिस पर यह बात घट सकती है वह है परिव्राजक योगी नाथ का जन्म हुमा था और उनके जन्म से २७८ वर्ष या सन्यासी । योगियों-सन्यासियों का सबसे पुराना पश्चात् वैशाली में लिच्छवि गणतन्त्र के नायक चेटक की पुत्री त्रिशाला की कुक्षि से भगवान महावीर का जन्म नमूना वास्य है । (भारतीय अनुशीलन, पृ०१६)। हुमा था । मतः प्राचीन प्रात्य यदि उत्तर काल में वज्जि कहे ___ मनुस्मृति में (म० १०) लिच्छवियों को वात्य कहा जाते हों तो कोई आश्चर्य नहीं है। इस तरह भगवान है। मोर वात्य शब्द ऋग्वेद के भनेक मन्त्रों में माता है। महावीर को जन्म देने वाली पुण्य भूमि बिहार के निवासी प्रतः स्पष्ट है कि 'व्रात्य' बहुत प्राचीन है । यजुर्वेद तथा विदेहों मगषों का सम्बन्ध भारत की प्रति प्राचीन उस त०मा० (३, ४-५-11 में व्रात्य का नाम नरमेध की परम्परा से है जिसने वैदिक क्रियाकाण्ड से शताब्दियों बलि सूची में माया है। और महाभारत में प्रात्यों को तक प्रप्रभावित रहकर उस तत्त्वचिन्तन मे अपना समय महापातकियों में गिनाया है। अथर्ववेद के १५३ काण्ड बिताया था, जिसने वेदान्त के रूप में उपनिषदों के के प्रथम सूक्त में वात्य का वर्णन है । और सायणाचार्य निर्माण में भाग लिया था । यहाँ इतना स्थान नहीं हैं ने उसकी व्याख्या में प्रात्य को 'कर्मपरैः ब्राह्मणविद्विष्ट' कि मैं उपनिषदों से उन सम्वादों को उपस्थित कर जिससे कर्मकाण्डी विद्वान विद्वेष करते थे, लिखा है। जिनमें वैदिक ऋषियों में मात्म-जिज्ञासा की भावना से प्रथर्ववेद में ही मागधों का वात्यों के साथ निकट सम्बन्ध क्षत्रियो का शिष्यत्व स्वीकार करने के उल्लेख हैं और बतलाया है। इसी से श्री काशीप्रसाद जी जायसवाल ने वैदिक ज्ञान को निकृष्ट मोर ग्राम ज्ञान को उकृष्ट (मार रिव्यु १९२९, पृ. ४६६) लिखा था 'लिच्छवि बतलाया है। इस विषय में डा० दास गुप्ता ने अपने पाटलीपुत्र के अपोजिट मुजफ्फरपुर जिले में राज्य करते थे भारतीय दर्शन के इतिहास में (जि. १, पृ० ३१) लिखा
SR No.538017
Book TitleAnekant 1964 Book 17 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1964
Total Pages310
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size16 MB
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