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________________ २४० अनेकान्त प्रकाशन सतना (म० प्र० ) । पृष्ठ संख्या ६२ मूल्य चालीस पैसा । प्रस्तुत पुस्तक में श्रीनीरज जी ने मध्य प्रदेश के प्रतिजय क्षेत्र कुण्डलपुर का परिचय इतिहास और पूजन दी है, जो सर्व साधारण के लिए उपयोगी है। वहाँ के मन्दिर मे विराजमान मूर्ति जिसके कारण वह अतिशय क्षेत्र बना, और जिसे लोग बडे बाबा के नाम से पुकारते है तथा उसे महावीर कामी की मूर्ति बताते है। लेखक ने अपनी प्रस्तावना में उसे आदिनाथ की मूर्ति सप्रमाण बताई है। इसमें सन्देह नहीं कि प्रस्तुत मूर्ति प्रादिनाथ की ही जान पड़ती है । इस पुस्तक में नीरज जी की तीन कविता और पूजन दी हुई है, जो महावीर की मूर्ति को लक्ष्य करके लिखी गई है पूजन यदि आधुनिक स्तर पर दिली जाती तो अधिक उपयुक्त होती । ग्रस्तु, कविता सुन्दर है, भावपूर्ण है, और विनाकर्षक है। कविता के कारण पुस्तक बोल उठी है। उससे क्षेत्र का वैभव साकार हो उठा है। नमूने के कुछ पद्य देखिये । धर्मानुरक्त नृप छत्रसाल, क्या कभी भुलाया जावेगा। उसका यश गौरव घर-घर में सदियों तक गाया जावेगा ॥ वह महावीर का परमभक्त, जिन शासन का अनुयायी था । 'औ' दीन-हीन दुखियों का वह रक्षक भी था सुखदायी था । प्रभु केटिंग श्राकर एक बार बोला, चरणों में झुका शीश । आज मांगने आया हूँ, यह वर मुक्त को दीजं मुनीश ॥ · क्षण भर में ही कुछ यवन वहाँ वेदी पर चढ़से टूट पड़े, दर्शक- पूजक हत बुद्धि हुए श्री' विस्मित से रह गये खड़े । सबसे प्रागे खुद बादशाह, कर में टांकी लेकर प्राथा, पर जाने क्यों कर अकस्मात उसका तन श्रौ' मन थर्राया । यह वीतराग छवि निनिमेष अब भी बंसी मुस्काती सी थील शांत पर लगती थी उसको उपदेश सुनाती सी । सुन पड़ा शाह के कानों में मिट्टी के पुतले सोच जरा, यह ग्रहकार धन-धान्य सभी कुछ रह जावेगा यहीं धरा ।" जीवन की धारा में अब भी तू परिवर्तन ला सकता है. अब भी अवसर है अरे मूढ़ ! तूं मानव कहला सकता है। . नीरज जी उदीयमान लेखक और कवि है । उनसे समाज को बड़ी बाधाएं है। पुस्तक सुन्दर है, लेखक से मंगाकर पढ़ना चाहिए। परमानन्द शास्त्री अनेकान्त के ग्राहक बनें 'अनेकान्त' पुराना ख्याति प्राप्त शोध-पत्र है। अनेक विद्वानों और समाज के प्रतिष्ठित व्यक्तियों का अभिमत है कि वह निरन्तर प्रकाशित होता रहे। ऐसा तभी हो सकता है जब उसमें घाटा न हो और इसके लिए ग्राहक संख्या का बढ़ाना अनिवार्य है। हम विद्वानों, प्रोफेसरों, विद्याथियों, सेठियों, शिक्षासंस्थानों, संस्कृत विद्यालय कालेजों और जनभूत की प्रभावना में अद्धा रखने वालो से निवेदन करते है कि वे शोध ही 'अनेकान्स' के ग्राहक बनें और बनाये । 9
SR No.538017
Book TitleAnekant 1964 Book 17 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1964
Total Pages310
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size16 MB
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