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________________ दिग्विजय २७ हम दश्य को ले कर भरत के मन में भीषण उथल- सहसा भरत का हाथ ऊँचे उठा । ठहरो।' पुथल का सूपात हुचा, बचपन की स्मृतियों ने एक बार क्षण मात्र में बढ़ती हुई सेनाएं जहां की तहां जब हो फिर उसके मानस पटल पर अंकित हो कर उछल कूद गई । खड्ग जहाँ उठे थे वहां रुक गए, चारों भोर मादेश मवाना प्रारंभ कर दी, कहां वह बाहुबली को खेल खिलाता यंत्रों की तरह पालन किया गया । चक्रवर्ती के सामने मा था, उसका हाथ पकड़ पकड़ कर उद्यान की सैर कराता था। कर महासेनापति ने पका। 'पाज्ञा, सम्राट । पोदनपुर की विजय के बाद किस प्रकार दोनों भाई गले चक्रवर्ती ने श्राज्ञा दी । 'महासेनापति, युद्ध बन्द करो, मिले थे। कैपे उसने बाहुबली को पिता के साथ ही वैराग्य महावत, हमें बाहुबली के सम्मुख ले चलो। लेने से हठपूर्वक रोका था। स्नेह, स्नेह, स्नेह, इस रक कुछ ही समय के भीतर भरत का हाथी रणभूमि के प्लावित हो जाने वाली भूमि में इस एक शब्द से बोध बीचों बीच पहुँच गया । उधर से जब बाहुबली ने भरत होने वाले महान् सांसारिक तत्व का सर्वथा अभाव दिखाई को पाने देवा, तो उसका हाथी भी सेना की पंक्तियों के दे रहा था। उसके साथ ही राजनंदिनी के अद्भुत प्रभाव- बीच में से निकला और दोनों भाई आमने सामने मागए। कारी शब्दों ने ठीक उसकी आंखों के सामने उसके कृयों बाहुबली ते कहा । 'भैया को प्रणाम ।' की कालिमा का नग्न चित्र उपस्थित करना प्रारम्भ कर भरत ने प्रसन्नता से फूल कर कहा । 'चिरायु हो, दिया, क्या कहा था उसने । 'पार क्या कहेगा, पाने बाहुबली, तुमने हमें प्रणाम किया। हमें तुमसे यही प्राशा वाली संतति क्या कहंगी · भरत अयंग्य सेना लेकर भाई थी। प्राओ, गले मिले, युद्ध किस बात का?' भरत ने पर टूट पडा । जो स्वयं मिटने को तैयार है उसका अहंकार बांहें फैला दी। मिटता नहीं पूजा जाता है भरत अपने अहंकार से बाहु- 'यहां भूल गये, भैया । यह छोटे भाई को प्रणाम है, बला का अहंकार मिटाने चला है । एक कभी न मिटने राजा बाहुबली का भरत चक्रवर्ती को नही ।' बाहुबली ने वाला धब्बा सम्राट की कुल कीर्ति पर लग जाएगा।' राज- साभिमान वहा । नंदिनी के साथ हुआ समस्त वार्तालाप वातावरण में मजीव क्यों?' भरत ने कहा 'क्या तुम्हें हमारे चक्रवर्ती ध्वनि बन कर छा गया । होने की खुशी नहीं है ? क्या भाई को भाई का वैभव नहीं सुहाना ?' क्षण क्षण में एक दूसर के रक्त की प्यासी सेनाएं समाप्त भैया, तुम्हारे भाई की दृष्टि में वैभव का कोई मूल्य होती जा रही थीं और भरत की मानसिक कल्पनाओं में नहीं है में वैभव को सिर नहीं झुकाता विनय को सिर युगों-युगा का मेचिन ग्मृतियां बृहदाकार रूप धर कर तांडव मुकाता हूँ।' नृत्य का आयोजन कर रही थीं। अद्भुत है मानव का मन तो क्या तुम चाहने हो कि संसार हमारी हंसी उड़ाए जिममें युग नणां के समान लगते हैं और एक क्षण और कहे कि भरत से जगत का मन तो जीता गया, किन्तु में काल की ओर छोर समा जाता है थोड़ी ही देर में ___ भाई का मन नहीं जीता गया ? बाहुबली की यह नन्हीं मी सना अपना सजीव और सज्ज्ति 'सेनामों के मन नहीं जीत जाते, भैया, सिर जीते जाते रूप त्याग कर पृथ्वी पर बिछ जाएगी। चारों ओर खून ही खून दिखाई देता होगा, सुन्दर और शांत जीवन कैसा एक ' 'क्या तुम पसंद करोगे कि तुम्हारी एक भावना के लिए घृणास्पद और बीभत्स मृत्यु के रूप में परिवर्तित हो जाएगा, इतने जीते जागने मनुष्यों के सिर कट जायें ? भरत ने बाहुतब भरत किससे कहेगा तू मेरी प्राज्ञा मान ? भरत किमस बलि की सेनाओं को इंगिन किया। कहेगा तू मेरे प्राधीन हो, तू मुझे नमस्कार कर ? सब दिग्विजय की दीवार जीने जागते मनुष्यों के रक्त कुछ ही तो समाप्त हो जाएगा, हां बच रहेगा भरत के और मांस से ही खड़ी होती है। इतने मनुष्यों की भेंट तो लिए अपयश और पश्चाताप की ज्वाला, भरत के जल सागर में बूद के समान होगी। फिर भी अपने भैया जैसे मरने को। देवता को मैं यह बलि देने के लिए प्रस्तुत हूं।"
SR No.538017
Book TitleAnekant 1964 Book 17 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1964
Total Pages310
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size16 MB
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