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________________ अनेकान्त राजकुमारी ने दृढ़ स्वर में अपने आंसू पोंछते हुए कहा, उत्तर मिलता था । किन्तु माथ ही दूसरी ओर से जाने तो 'नहीं, सारथी, इसमें तुम्हारा कुछ भी दोष नहीं माना कैसा असंतोष उसके मन में शूल की तरः चुभ चुभ जाएगा महाराज तुम्हें कुछ नहीं कहेंगे, जो भी हो, मैं जाता था। वैजयंती नहीं जाऊंगी।' कब राजनंदिनी इन्हीं विचारों से थक कर रथ के हिचराजनंदिनी को अपनी जिद पर अटल जान कर सारथी __ कोलों में सो गई कुछ पता नहीं चला, किन्तु जब उसकी ने उसे फिर वापस कटक में ले चलने का प्रस्ताव किया। प्रांखें खुलीं रात हो चुकी थी और रथ खड़ा था । उस दिन राजकुमारी ने यह सोचा कि जंगल में भटक कर भी वह वाह- युद्ध भूमि में भी सुबह हुई थी। बली के पास नहीं पहुँच सकती, यदि पिता जी का कहना दोनों पक्षों की सेनाएं एक दूसरे के आमने सामने सही था. तो अगला दिन हो गया है और अब तक भरत या खड़ी हुई, एक ओर भरत की विशाल वाहिनी थी। और बाहुबली की सेना का संग्राम छिड़ चका होगा. यदि दूर तक सजे हुए हाथियों की असंख्य कतारें दिखाई देती वह बाहबली से जीते जी मिलना चाहती है, तो उसके लिए थीं । अनगिनत रथों पर बालरवि की चमचमाहट से अांखें यही शुभ होगा कि वह उन लोगों के साथ वापस चल पड़े, चौंधिया जाती थी। अश्वों पर शस्त्रों से सुसज्जित योद्धाऔर युद्ध भूमि के पास पहुँचने पर अपना कर्तव्य फिर से गण साक्षात् कालदूत से प्रतीत हो रहे थे, और जहां तक निश्चित करे, उसने सारथी का प्रस्ताव स्वीकार कर लिया, दृष्टि जातो थी पैदल सिपाहियों के व्यवस्थित समूह दृष्टिऔर रथ तुरन्त ही उसे लेकर वापस लौट चला। गोचर हो रहे थे। यह यी भरत की वह चतुरंगिनी, जो रथ के पहियों के घरड़-घरड़ के साथ राजनंदिनी के कभी अयोध्या से परिणी बन कर निकली थी, और प्राज विचारों के धौंसे उसके मस्तिष्क में बजने लगे। अब क्या सागर हो गई थी। होगा यही संशय उसके मन में बार बार रह रह कर उठने दूसरी ओर बाहुबली की सेना थी, जो चक्रवर्ती की लगा। उसके पिता ने उसे धोखा दिया था, किन्तु पिता का चतुरंगी के सामने बड़ाई छुटाई का एक अपूर्व दृश्य उपस्थित कर रही थी। सब से भागे अश्वारोही दल की एक लम्बी दिया हुआ धोखा कभी धोग्वा नहीं कहलाता, संसार यही ' पंकि थी। उसके पीछे एक ही पंकि हाथियों की थी। रथ समझता है कि उन्होंने जो कुछ किया अपनी बेटी की भलाई यत्र-तत्र ही नजर प्राते थे और पैदल संनाएं हाथियों के के लिए किया । बाहुबली के प्राण जाएं चाहे रहें, किन्तु राजनंदिनी के प्राण वचाना उनका पहला कर्तव्य था, इम दीर्घ शरीरों की ओट में दिग्वाई ही नहीं दे रही थीं। किंतु कर्तव्य पालन में उन्होंने राजनंदिनी के मन को कितना दु.ख चक्रवर्ती की सेनाओं के सामने बाहुबली ने अपनी छोटी मी पहुँचाया था इसका लेखा जोखा प्रासानी से लगने वाला सना का अद्रत व्यूह रचा था। उसी समय चक्रवर्ती का विशाल और बलिष्ठ हाथी नहीं था। उन्मत्त पगों से भरत को एक ही नजर में अपनी तथा बाहुक्या जब तक रथ युद्ध भूमि में पहुंचेगा बाहुबली बली की सारी सेनाओं का निरीक्षण कराता हुश्रा चतुरंगिनी अपने नन्हें से बल से चक्रवती का सामना करते रह सकेगे? के आगे पाया. बीच में पाकर चक्रवर्ती ने रणभेरी बजाने यदि रथ रात के समय वहां पहुंचा, तो क्या युद्ध समाप्त का इशारा किया। न हो चुका होगा ? क्या चक्रवर्ती के साथ किया हुआ जोरों से रणसिंघे की आवाज चारों दिशाओं में गूंज किसी छोटे मोटे राजा का रण एक दिवस के पश्चात् भी गई। साथ ही भरत के महारथी उसके चारों ओर पाकर अनिर्णय की दशा में रह सकता है ? पाह, क्या वह इसी एकत्र हो गये, दोनों पाश्चों से हाथियों के समूह उन्नत जीवन में इन्हीं प्रांखों से फिर एक बार बाहुबली को देख शिखर पर्वतों की नाई तेजी से भागे बढ़ । रण कौशल से सकेगी? बाहुबली की अश्व पंक्ति दोनों किनारों की ओर फैल गई राजनंदिनी के हृदय में ये सब प्रश्न उठ कर भयानक और साथ ही प्राधा प्राधा भाग दोनों किनारों पर सिमटता अांदोलन का सूत्रपात कर रहे थे एक अोर से उसे हां में दिखाई दिया।
SR No.538017
Book TitleAnekant 1964 Book 17 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1964
Total Pages310
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size16 MB
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