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________________ गेही पं गृह में न रचे १३३ (पृष्ठ १२६ का शेप) रहता था, अब वह विष-कणिका निकल गई मानो मेरे जिन्होंने भववांछा को विनष्ट करने के लिये प्राशावल्ली उन्धान का ही शुभ दिन पाया है। अब मैं वास्तविक साधु के रस को निःशक्त बनाया है । भगवन मेरा यह गुरुतर बन पाया है। और मुझे विश्वास है, कि मेरी साधना अवश्य अपराध कैसे दूर होगा ? और में अपने जीवन को कैसे सफल होगी। वारिषेण पर यह उक्ति पूर्णतया चरितार्थ होती सफल बना सकृगा। वारिपेण जैमा महा मन्त ही मुझे है। गेही पै गृह में न रचे ज्यों जल में भिन्न कमल है। नगर संसार समुद्र पार कर सकता है । इस ने मेरा बड़ा उपकार । नार को प्यार यथा काद में हेम अमल है।' सोमशर्मा किया है । जिस में कभी भुला नहीं सकता । इसके तप वारिपेगा के साथ शीघ्र ही वन में पहुंचे, अब वे पूर्णतया निः और त्याग ने मुझे वह शक्ति प्रदान की है, जिसे में अब शल्य थे। प्राप्त निर्विकार भाव से उन्होंने पूर्णतया मुनिपद तक प्राप्त न कर सका था। मेरा चिन निरन्तर डांवा डोल का पालन किया और परन्परया मुक्ति पद पाया । * "जगत राय की भक्ति " ( गंगाराम गर्ग एम० ए०, रिसर्च स्कॉलर ) ईश्वर के प्रति नीव अनुरक्ति भक्ति कही जाती है। नन्दि की पंचविशतिका की प्रशस्ति में जगतराय को नन्दलाल धर्म प्राण देश होने के कारण भारत की काव्य-साधना की का पुत्र स्वीकार किया गया है ३ जो समीचीन प्रतीत होता पृष्ठभूमी में भक्ति का महत्त्वपूर्ण योग रहा है, चाहे सन्त है। जगतराय औरंगजेब के दरबार में उच्च पद पर पापीन काव्य हो अथवा वैष्णव काव्य; बौद्ध काव्य हो अथवा जैन ये। 'राजा' इनकी पदवी थी। अगरचंद नाहटा के विचारों काव्य कोई भी यहां भक्ति से अछूता न मिलेगा। एक बात के अनुसार डॉ. प्रेममागर जैन ने जगतराय को एक प्रभाव. और है-विभिन्न साम्प्रदायिक काव्य-धाराओं के दार्शनिक शाली धर्म प्रेमी, कवियों का श्राश्रयदाता दानवीर व चिन्तन में भेद दृष्टि गोचर हो सकता है किन्तु भक्ति के निरहंकारी बतलाया है। डॉ. जैन ने जगतराय के प्रागम विचार से इनमें कोई भेद भी नहीं प्रांका जा सकता विलाप, सम्यक्त्व कौमुदी, पंचविशतिका, छंद रत्नावली, उपाम्य का गुण-कथन अथवा महिमा-गान, श्रारम-निन्दा, मानानन्द श्रावकाचार प्रादि ग्रंथों की चर्चा की है किन्तु एक निप्ट भक्ति की कामना श्रादि मूलभूत बाते ऐसी हैं जो कवि का भक्त हदय केवल अद्यावधि प्राप्त १५२ पदों में पभी सम्प्रदाय क भक्तिसाहित्य में समान रूप से मिलती ही देखा जा सकता है। डॉ० कस्तूरचंद कासलीवाल ने है। जैन साहित्य भक्ति की दृष्टि से विशेष उल्लेखनीय है। पद्मनन्दि पंचविंशतिका के आधार पर जगतराय का काव्य जगतराय का परिचय-जगतगय का जैन भक्ति-साहित्य काल मं० १७२०-१७४० ई० ठहराया है। में महत्त्वपूर्ण स्थान है। इनके पिता मह माईदास सिंघल जगनराय की भक्तिः -जगतराय ने अपने प्राराध्य गोत्रीय अग्रवाल जैन थे। माईदाम के दो पुत्र थे रामचन्द्र जिन भगवान् शान्त स्वरूप, निष्काम, विरागी, शोभायमान. और नन्दलाल । इन दोनों भाइयों में से जगतराम किन के महा-महिम, अक्षरविहीन वाणी द्वारा उपदिष्टा बतलाए हैं। पुत्र थे, इस विषय में विद्वानों में मतभेद है। कवि काशी. वे जिनन्द्र को पटकाय जीवों पर दयालु, सबका हितकारी दास ने अपनी सम्यक्व कौमुदी में इनको रामचन्द्र का पुत्र यष्टि का सेव्य भी मानते हैं। कहा है। अगरचंदानाहटा को भी यही राय हे २ किन्तु पद्म- पुण्य हर्ष, पदमनंदि पंचविंशतिका की प्रशस्ति १ सम्यक्त्व कौमुदी की प्रशस्ति, अनेकान्त वर्ष १० पग्रह, पृ. २३८ किरण १० ४ हिन्दी के भक्ति काव्यमें जैन माहित्यकारों का २ भारतीय साहित्य वर्ष २ अंक २ में जगतराय मंब- योगदान की पाडुलिपि । १२३ न्धी लेख १२३ । ५ देखो, जैनपद संग्रह
SR No.538017
Book TitleAnekant 1964 Book 17 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1964
Total Pages310
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size16 MB
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