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________________ मनेकान्त १५२ हमा क्रमश: सुखों में आगे बढ़ता है । एक वर्ष की साधना सुख बढ़ता जाता है। हमें यथार्थ दृष्टि से देखना चाहिए। में वह भौतिक जगत के उत्कृष्ट पौद गलिक (सर्वार्थसिद्ध) उसके बिना हम सत्य तक नहीं पहुच सकते । यथार्थ दृष्टि सुखो को लाघ जाता है। पांच दश और पन्द्रह वर्षों तक से देखने पर यह स्पष्ट होता है कि भौतिक सुख भी साधावपालने पर भी यदि मानन्द नहीं पाता, तब प्रश्न क्षणिक सुख है पर दुख इसलिए माना कि उसका परिउठता है कि-यह सिद्धान्त सही नहीं है या वह णाम सुखद है। उसकी प्राप्ति के लिए ही क्षणिक सुख हमारी पकड़ मे नही माया। पहली बात पकड़ की है। का त्याग किया जाता है। सुख केवल शारीरिक ही नही, वह सही है या नहीं? इसका निर्णय पकड़ के बाद ही मानसिक भी होता है । सब से बड़ा सुख मन की शान्ति हो सकता है । उसे पकने में ध्यान केन्द्रित करना जरूरी है । मनुष्य वाद-विवाद में थकने पर शान्ति की शरण में है। देवतामों का स्तर जैसे जैसे ऊपर उठता है वैसे-वैस उनका परि ग्रह, ममत्व और शरीर की प्रवगाहना कम जाता है। सबसे बड़ा दुख पशान्ति है। उसका मुल होती जाती है, शान्ति बढ़ती जाती है । निवृत्ति के साथ मावेग है। उस पर विजय पाना ही संवेग का मार्ग है। दिल्लीपट्ट के मूलसंघी भट्टारकों का समयक्रम शंषांग डा. ज्योतिप्रसाद जैन, लखनऊ पूर्व विवेचन से यह स्पष्ट है कि दिल्ली पट्टाधीश एक शाखा पट्ट बन चुके थे वे भी इस प्रधान पट्र केही भ० शुभचन्द्र की सुनिश्चित रूप से जात प्रथम तिथि प्राधीन थे और उनके भट्टारक अपने समकालीन दिल्ली वि० स० १४७६ है और पूर्ण स भावना इस बात की है पट्टाधीश को ही अपना अध्यक्ष एवं गुरु मानते थे, किन्तु कि वह वि० सं० १४७१ मे या उसके कुछ पूर्व भट्टारक भ. पद्मनन्दि के समय में ही या उनके उपरान्त उनके पद प्राप्त कर चुके थे। यह निश्चित रूप से नहीं कहा विभिन्न शिप्यो ने जो कई पट्ट स्थापित किये वे मागे से जा सकता कि उनके पूर्व पट्टधर का देहावसान एव रवयं परस्पर स्वतन्त्र चले, अपनी-अपनी पट्टावलियां भी वे सब उनका पट्टारोहण उस समय तक हो चुका था या नहीं। इन भ० पद्मनन्दि से ही प्रारभ करते हैं। ऐसा प्रतीत यदि उस समय तक नही हुआ था तो १७४१ और होता है कि मूल-नन्दि सघ-बलात्कारगण-सरस्वती गच्छ १४७६ के मध्य किसी समय हुमा। की जो पट्टावलियां प्रचलित है और जो भद्रबाह द्वितीय उनके पूर्व पट्टधर एवं गुरु भ० पद्मनन्दि का यह काल से प्रारभ होकर इन पपनन्दि पर समाप्त होती है, उनके पट्टावलि के अनुसार वि० सं० १३८५-१४५० लगभग ५६ मलरूप का निर्माण इन्ही के समय में माथा । शाखापट्टों वर्ष है। यह म० प्रभाचन्द के प्रधान शिव्य एव पट्टधर ने उस मल पटावली प्राय: समान रूप से अपनाकर उसके ये पद्मनन्दि के समय तक इस उत्तर भारतीय मूलसघ का मागे अपनी-अपनी परम्परा की पट्टायलियां उस में जोड़ पट्ट अविभाजित था। अजमेर, ग्वालियर प्रादि के जो दो दी। जिस एक पट्रावली मे प्रारम्भ से लेकर २० वीं शती १. देखिए भने कान्त, वर्ष १७ कि०२ (जन १९६४. वि. के पूर्वाधं तक के प्रत्येक प्राचार्य का पृथक २ पृ. ५४, ५६, ७४ पट्टारोहण काल प्राप्त होता है वह चित्तौड़-मामेर पटका २. वही, पृ०५४ . है। उसमें यह पट्टकाल १६ वीं या १७ वीं शती ई० से
SR No.538017
Book TitleAnekant 1964 Book 17 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1964
Total Pages310
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size16 MB
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