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बिल्लीपट्ट के मूलसंधी भट्टारकों का समयक्रम जोड़े जाने प्रारंभ हुए लगते हैं और प्रायः उसी समय प्राप्त मूत्तिलेखों की लिपियां भी सं० १४६०, १४९२, संभवतया पूर्वाचार्यों के पट्टकाल भी अनुश्रुति या अनुमान १४६७ है। टोडानगर (संभवतया टोडारायसिंह) में के आधार पर उसमें दर्ज कर दिये गये प्रतीत होते हैं। भूगर्भ से निकली २६ जिन प्रतिमाओं पर अंकित लेखों प्रतएव उनकी जीव अपेक्षित है।
से विदित होता है कि उनकी प्रतिष्ठा सं०१४७० मे नन्दिसंघ के इन भट्टारकों में दिल्लीपट्टाधीश पद्मनन्दि के शिष्य विशाल कीति ने किन्ही गंगवाल गोत्रीय पचनन्दि का अत्यन्त प्रतिष्ठित स्थान है । वह एक महान खडेलवाल श्रावक के लिये की थी। इसी वर्ष (सन् प्रभावक प्राचार्य, उभयभाषाप्रवीण विद्वान एवं साहित्य- १४१३ ई.) की इन्हीं विशालकीति द्वारा विल्हण कार और राजमान्य गुरु थे। एक पट्टावली में उन्हे और उसके पुत्रो के लिये प्रतिष्ठापित मत्तियाँ टोंक में 'शास्त्रार्थवित एवं तपस्वी' विशेषण दिया है३, दूसरी में प्राप्तहुई बताई जाती हैं। १४१५ (वि० सं १४७२) में इन इन्हें 'अध्यात्मशास्त्री एवं यथास्यात चारित्र का प्रचारक' पद्मनन्दि के शिष्य नेमिचन्द ने प्रापा नामक किसी व्यक्ति बताया है। और एक अन्य में विशमिद्धांतरहस्यरत्न के लिये प्रतिष्ठा की थी और स्वयं उन्होंने (?) प्रसपाल रसाकर' तथा 'शाश्वत प्रतिष्ठा-प्रतिमागरिष्ठ'५ । एक नामक किसी व्यक्ति द्वारा उमी वर्ष पार्श्व प्रतिमा प्रति. पट्रायल के प्रान में लिखा है कि 'बलात्कार गण के ष्ठित कराई थी१०। सं० १४७२ को ही फागुन ब०१ अग्रणी इन गृह पतन्दि ने उर्जयत (गिरनार) गिरि को जिन भ. पद्मनन्दि ने बड़ जातीय उत्तरेश्वर पर सरस्वती की पाषाण प्रतिमा को बुलवा दिया था'३। गोत्रीय श्रावकों के लिये प्रादिनाथ पंचतीर्थी की प्रतिष्ठा इनके शिष्यों प्रशिष्पों आदि ने भी अपने अभिलेखों एव की थी११ । वह भी यही पद्मनन्दि प्रतीत होते हैं। उसी ग्रन्थ प्रशस्तियों में इनका प्रभून यशोगान किया है। वर्ष na laun
वर्ष एवं तिथि के एक अन्य लेख के अनुसार उसी जाति
लेख इनकी कृतियों के रूप मे श्रावकाचार सारोबार, अनेक
एवं गोत्र के अन्य श्रावकों ने इन्हीं के उपदेश से मुनिसुव्रत स्त्रोत्र, कई पूजाए वर्धमान चरित्र आदि प्रसिद्ध है इनका जिनकी प्रतिमा प्रतिष्ठित कराई थी१२। इस लेख के शिष्य परिवार भी पर्याप्त विशाल था, जिनमें इनके प्रधान श्री पद्यनन्दा पटेशा श्री नेमिचन्ट
सिर पेट्रधर शुभचन्द्र मागवाडा, (बागड) एवं ईडर पट्टों के कि वह प्रतिष्ठा इन्होंने अपने शिष्य नेमिचन्द्र द्वारा संस्थापक सकलकीति, सूरत पट्ट के संस्थापक देवेन्द्र काति, कराई थी। इसी वर्ष एवं तिथि को हैबड़ श्रावकों के मलखेड पट्ट के रत्नकोति, ग्वालियर पट्ट के त्रिलोककोति
लिये ही पद्यचन्द्र (पअनन्दि) शिष्य नेमिचन्द्र द्वारा या (देवेन्द्र कीति), तथा मदनकोति, विशालकीति,
चित्तौड नगर में प्रतिष्ठा करने का एक अन्य लेख नेमिचन्द्र प्रायिका रत्नश्री कवि जयमित्र हल्ल आदि
मिलता है१३ । सं० १४८० का एक लेख उनके किसी प्रसिद्ध हैं। जैसा कि ऊपर कहा जा चुका है भ० शुभचन्द्र के
पट्टधर का है (नाम खडित है)१४ । यह नेमिचन्द्र वही
प्रतीत होते हैं जिनका उल्लेख पद्मनन्दि के प्र पट्ट पर उल्लेख वि० स०१४७१ के पश्चात् प्राप्त होते हैं । भ० देवेन्द्र कीत्ति का पट्टारंभ पट्टावलियों में वि० स० १४४४
जिनचन्द्र दीक्षा गुरु के रूप में पाया जाता है। पौर सकलकीत्ति का १४५१ पाया जाता है, किन्तु विशेष
इस सबसे यही फलितार्थ निकलता है कि भट्टारक ऊहापोह से ऐसा लगता है कि सकलकत्ति गुरु पद्मनन्टि पद्मनन्दि की उत्तरावधि वि० सं०१४७२ (सन १४१५ के पास नैण वा में वि० स० १४६६ में गये तथा उन्हें शोषांक १६, पृ० २०८-२०६ भाचार्य पट्ट की प्राप्ति १४७१ या १४७७ में हुई। उनके ८ जं० प्र० प्रशास्ति संग्रह, भा० १, प्रस्तावना पृ० २१ '३.० सि. भास्कर भा० कि० ४, पृ०८१-८४६.कैलाशचन्द जैन-जैनिज्म इन राजस्थान, पृ०७४ ४. वही, शुभचन्द्र गुर्वावलि
वीरवाणी ७ के प्राधार से ५. वही, भाग ६, कि० २, पृ० १०८.११६
१०. पट्टी, पृ०७५-प्रनेकांत, १३,१२६ के मापार से ६. वही, भा० २२, कि० १, पृ०५१-५१
११. बीकानेर जं. ले. संग्रह, नं०१६४७॥