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________________ जो देता है वही पाता है (श्री प्राचार्य तुलसी गरणी) जो देता है वही पाना है। जो देना नहीं जानता वह ही अच्छा है। इसलिए मैं पाणवन-मान्दोलन की पूरी पा भी नहीं सकता। जो देने को अवसर की तुला पर तरक्की चाहता हैं।' तोलकर देना है वह व्यवसायी भले ही हो सकता है व्यापक व एक अत्यन्त विनम्र व्यक्ति थे। इसीलिए प्रत्येक के नहीं बन सकता। जवाहरलाल जी व्यापक इसीलिए बने विचारों का सम्मान करते थे। प्रथम बार जब उनसे मिलना कि उन्होंने मुक्त हदय से अपनत्व को बांटा और यही हया तो एक कमरे में हमारे बैठने की व्ववस्था की गई कारण था कि उन्होंने इतना पाया जिसकी कल्पना भी बड़ी । थी। पर अपनी प्राचार परम्परा के कारण हम उसमें नहीं अगोचर लाती है। बैठ सकते थे। मैंने उनसे कहा-हम तो बाहर बैठेंगे। धामिक जीवन उन्होंने बिना किसी ननुनच के स्वयं अपने हाथ में एक उनके बारे में प्रायः कहा जाता है कि वे धार्मिक व्यक्ति गबढी ली और बाहर बरामद में पा गए, बरामदे में एक नहीं थे, पर उनमें कई बार मिलने के बाद ऐसा लगा कि स्थान पर जहां वे बैठने को हुए यहां कुछ चीटियां थीं। म्धिति ऐसी नहीं है। यह सच है कि उन्हें क्रिया-कांड पर मैंने कहा-"हम थोड हटकर बैठेंगे तो अच्छा रहेगा। ज्यादा विश्वास नहीं था। और यह संभव भी नहीं था। नकण व दूसरे स्थान पर चले पाए । फिर हमारी लगभग राष्ट्र के जिय सर्वोच्च स्थान पर थे वहीं से किमी धर्म विशेष घंटे भर तक बातचीत हुई। उन्होंने बड़े ध्यान से हमारी की बनि पाए यह जनतन्त्र के लिए बड़ी कठिन बान होती बातों को मना। उसके बाद यो कई बार अपने कार्यक्रमों है। और सच तो यह है कि धर्म का क्रिया-कांडों से उतना में प्राण। शिष्य संतो से भी मिले । शुरू से लेकर प्राग्विर सम्बन्ध ही नहीं जितना कि जीवन की पविग्रता से है। तक उन्होंने प्रणवत-प्रान्दोलन को काफी महत्व दिया । धर्म-निरपेक्ष इस बार जब कि वे अम्वस्थ थे तो मैंने तकलीफ देना उनके धर्म निरपेक्ष राज्य (Secular State) को अच्छा नहीं समझा. तो मैं उनके निवास स्थान पर गया, भी ठीक तरह से नहीं समझा गया । उसका धर्महीन गप इम अवस्था में भी उन्होंने लगभग ४५ मिनट तक बड़े कहकर मजाक उड़ाया गया। पर वास्तव में उसका यह ध्यान से मेरी बात मनी। मैंने उन्हें काफी स्पष्टता से अर्थ ही नहीं । धर्म निरपेक्ष का अर्थ है-किसी धर्म विशेष । दश की परिस्थितियों से परिचित कराया। कुछ बातें का नहीं। इसीलिए वह सब धमों का हो जाता है। प्रणयत उनके मानम के प्रतिकृल भी, पर उन्होंने बड़े धर्यपूर्वक उन्हें प्रान्दोलन के प्रति उनका झुकाव इसीलिए था कि यह मुना। जब मैंने उन्हें उना भावा उत्तरधिकारी की बात पर्व धर्म समन्वय या दुमर शब्दों में धर्म निरपेक्षता को । कही तो उन्होंने कहा-“मैं सोचता तो हूँ, पर इसमें मानकर चलता है। कठिनाइयां यहत है?" मैंने कहा-“अब जो चरित्र के समर्थक कठिनाइयां है. उन्हें तो पाप मुलझा भी दंगे, पर आगे वे देश में चरित्र को वे बड़ा ऊंचा स्थान देते थे। भारी पड जाएंगी। इसी सिलसिले में उन्होंने कहा था अणव्रत-आन्दोलन का भी यही लक्ष्य था। इसीलिए कि मै श्री लालबहादुर शाम्ग्री को उप-प्रधान बनाना चाहता उन्होंने कहा था-हमें अपने देश का मकान बनाना है। है। कांग्रेस संगठन ने भी उनकी इच्छा को बंडे सुन्दर उसकी बुनियाद गहरी होनी चाहिए। रेत की होगी तो और जनतान्त्रिक ढंग से पूरा कर दिया है। जो काम वे ज्यों ही रेत ढह जाएगी, मकान भी ढह जाएगा । गहरी स्वयं करने में कठिनाई अनुभव करने थे उसे कांग्रेस ने कर बुनियाद चरित्र की होती है। देश में जो काम हमें करने हैं दिखाया। पर अभी तो कांग्रेस को उनक बहुत सारे अधूरे वे बहुत लम्बे चौड़े हैं। इन सबकी बुनियाद चरित्र है। कामों को करना है । इसके लिए उन्हें हर बड़े से बड़े स्याग इसे लेकर बहुत अच्छा काम प्रणवत-प्रान्दोलन में हो रहा के लिए नयार रहना होगा और हम बात को ध्यान में है । मैं मानता है-इस काम की जितनी तरक्की हो उतना रम्बना होगा कि जो देता है वही पाता है।
SR No.538017
Book TitleAnekant 1964 Book 17 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1964
Total Pages310
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size16 MB
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