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________________ 'समयसार' नाटक २०७ दूसरी पोर 'सकल' के चरणो मे भी श्रद्धा क पुष्प चढाये जबकि सासारिक कलक निकल जाय । तभी उसे अनत सुख और केवलज्ञान उपलब्ध हो सकता है। वह सिद्धनिष्कल का दूसरा नाम है 'सिद्ध'। कर्मों के प्राव लोक का शाश्वत निवासी भी तभी बन सकता है । ऐसे रण से मुक्त प्रात्मा को सिद्ध कहते है। नाटक समयमार भगवान के भक्त का भक्तिपरक मापदण्ड निश्चय रूप में शुद्ध प्रात्मा के प्रति गीतो की भरमार है। एक स्थान से ऊँचा है। पर कवि ने लिखा है कि शुद्धात्मा के अनुभव के अभ्यास जो अपनी दुति माप विराजत, से ही मोक्ष मिल सकता है, अन्यथा नही ?१ उनका यह भी है परधान पवारय नामी। कथन है कि आत्मा के अनेक गुण-पर्यायो के विकल्प में चेतन ग्रंक सवा निकलक, महासुख सागरको बिसरामी॥ न पडकर शुद्ध प्रात्मा के अनुभव का रस पीना चाहिए । अपने स्वरूप में लीन होना और शुद्ध प्रात्मा का अनुभव जीव मजीव जिते जग मै, करना ही श्रेयस्कर है । सिद्ध शुद्धात्मा के ही प्रतीक है। तिनको गुन शायक अन्तरजामी। उनके विशेषणो का उल्लेख करते हए कवि ने उनकी जै सो सिवरूप बस सिवधान, जैकार की है। वह पद्य देग्विा ताहि विलोकि नमै सिवगामी ॥ निर्गुनिये सन्तो की भाति ही बनारसीदास ने यह अविनामी अविकार परमरस-धाम है, स्वीकार किया कि जिनगज घट-मन्दिर में विराजसमाधान सरवंग सहज अभिराम है। मान रहता है। उसमें ज्ञान-शक्ति विमल पारसी सुद्ध बुद्ध अविरुद्ध अनादि अनन्त है. की भाति जाग्रत हा जाती है । उसके दर्शन में जगत शिरोमनि सिद्ध सबा जयवन्त है। महारम उपलब्ध होता है। महारस वह है, जिसमें एक दूसरे स्थान पर कवि ने शिवलोक में विराज एक ओर मन की चपलता नही रहती, तो दूसरी मान 'शिवरूप' की बन्दना की है। उनका कथन है कि ओर योग मे भी उदासीनता आ जाती है । अर्थात् प्रात्मा जो अपने पात्मज्ञान की ज्योति से प्रकाशित है, सब सहजयोगी का रूप धारण कर लेती है। सहजयोगी का पदार्थों में मुख्य है, निष्कलक है, सुख-मागर में विश्राम तात्पर्य है कि परम महाग्स के प्राप्त हो जान से योगी करता है, संसार के सब जीव और अजीवो के घट-घट का को योग की दुम्ह साधना में स्वत निवृत्ति मिल जाती जानने वाला है और मोक्ष का निवासी है, उसे भव्य जीव है । वह माधना के बिना स्वाभाविक ढग से ही योगी सदैव नमस्कार करते है । भक्त के वन्दनीय को बना रहता है। बनारसीदास की 'सहजना' में बज्रया'शिवरूप' तो होना ही चाहिए, साथ ही तेजवान भी, किन्तु नियों के सहजयानी सम्प्रदाय का 'सहज' नहीं है, इसमें तेज भौतिक न होकर दिव्य हो, वह तभी हो सकता है आत्मा का स्वाभाविक रूप ही प्रमुख है । अर्थात् बना ग्मी दास रहले महारस प्राप्त करते है, तब सहजता रजाउद्धरण भाविक ढग से मा ही जाती है। सहजयानी पहले सह१. शुद्ध परमातम को अनुभो अभ्यास कीज, जता प्राप्त करते है फिर महाग्स की ओर अखि लगाते यहै मोख-पथ परमाग्थ है इतनी । है। कुछ भी हो बनारसीदास घट में शोभायमान सहज-नाटक समयमार, बम्बई, १०।१२५, पृ०३८। योगी चेतन की बन्दना करते है । २. गुन परजे मे द्रिष्टि न दीज, निरकिलप अनुभौ रस पीज । १. जामैं लोकालोक के सुभाव प्रतिभामे सब, पाप समाइ आप मे लीजै, जगी ग्यान सकति विमल जैमी पारसी। तनुपौ मेटि अपनुपौ कीजै । दर्सन उद्योत लीयो अन्तराय प्रत कीयो, -वही, १०१११७, पृ० ३८३३ गयो महामोह भयो परम महारसी ॥
SR No.538017
Book TitleAnekant 1964 Book 17 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1964
Total Pages310
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size16 MB
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