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धर्म ही मंगल मय है
( अशोक कुमार जैन ) धम्मो मंगल मुक्कि पहिमा पंजमो तवा । शक्ति को मरोर देती है जिससे जीवात्मा अपने उदार कार्य देवा वि तं नमसंति जम्म धम्मे पयामणो । में असमर्थ बन जाता है। इसी में संयम में प्रवृत होना
धर्म जीवनका मूलाधार है. शान्ति का प्रतीक है. समता. परता है, तब कहीं उस की अमंयम से रक्षा हो पाती है। का परिणाम है-जिम में राग-द्वंप-मोह श्रादि विकागे प्राचार्य कुन्दकन्द ने चारित्र को ही धर्म बतलाया है। का लेश नहीं है। धर्म वह अनुगामन हैं जो अन्तरालमा 'चारित्रं बल धम्मा' वह धर्म समता रूप है, और ममता को कवल म्पर्श ही नहीं करता प्रत्युत उसे अनुप्राणित भी मोह-क्षोभ के प्रभाव में होती है । जब चारमा रागद्वे पादि से करता है। प्रमण्व धर्म उत्कृष्ट मंगल पाप का विनाशक अपने निर्मल चैतन्य म्वभाव में रहता है, तभी का वाम्तहै। धर्म का वह मंगलरूप अहिमा संयम और नप द्वारा विक धर्म को पाता है। ऐसे धर्म का अनुष्ठान जिन्होंने प्रकट होता है। वही प्रामा की स्वतंत्रता का प्रतीक है। किया है उन्हें ही वास्तविक सुख प्राप्त होता है । नव ग्रामा धर्म का यथार्थरूप में प्राचरणा करता है लय उसे धर्म कसा भी दवहो जाता है और अधर्म से दव जीवन प्रदायिनी शान्ति प्राप्त होती है। मामा में राग, भी कसा बन जाना। धर्म है। जावका रक्षक है, उस से दंप. मोह, काम, क्रोध आदि विभाव जितनी जितनी मात्रा हादग्व दर होत है : भागन्तुक विपदानों से धर्म ही जीव में कम होने जान है उनी उननी मात्रा में ही जीवन में को बचाना मागे लोग धर्म की शरण में जाते हैं। धामिकता एव समता प्रकट होनी रहती है।
धर्म ही उन्हें विपदाश्राम उम का उद्धार करता है। धर्मअहिया पयम और नपका आधार शिला है। हम क मय परिणति सही अर्थान धर्मका निदोष प्राचरय करने से बिना उनमें प्राण नही रहना । हिया जहां जीवन प्रदायिनी ही कम रूपी ग्रन्यि म्बुलना है। कपाय की शक्ति का रस शक्ति है । वहा श्रा-कल्याण की कमांटी भी है। हिया मूखता है। श्राम-बल में वृद्धि होती है। निर्दोष व्यक्ति को चोट पहुँचानी है, भय, दुर्बलता, हूँ प. व
धर्म जीवमात्र का कारण बन्धु है । मंमार के समी निष्टरता को जन्म देती है । उमसे जावन प्रशान्त श्रीर दुखी जीव धर्म मम्बा दख जात है, और पाप में दुग्यो । धर्म बना रहता है। किन्न हिमा दुलो प्रति न्याय का मनार में मांसारिक मख और माता परिणति रूप भोग मामग्री करती हर जीवन को मरम और कार्यक्षम बनाती है, और मल बर-बर चक्रवती, बलभद्र और तीथंकरादि हिमा जीवन को कठोर, निर्दयी नया अन्याय को प्रोन जन
उच्चकाटि क पद मिलते हैं। धर्म से शत्र भी मित्र बन देता है । इसी में बह गहित एवं न्याज्य है।
जान है और पाप में मित्र भी शत्र हो जाने है। और अहिपक भावना की प्रेरक शक्ति संगम है । संयम धर्म से ही कठो माधना द्वारा जीव मुक्ति प्राप्त करना है। म्वभावगत दुर्बलतानों के प्रति कोई रियायत नहीं प्रदान जिसने अपने धर्म की रक्षा की, उसी ने पब की रक्षा की। करती । किन्तु प्रामीय दुर्बलताओं का दमन करने या जो अधर्मी है-पापी है, उसकी कोई दया नहीं करता । श्रतः नियंत्रण करने के साथ-साथ उसमें जीवमात्र के प्रति दया, ऐसे उत्कृष्ट मंगल मय धर्म का हमें मदेव भाचरगा करते न्याय और प्रेमका प्राग्रह निहित है। पारम-विकास में बाधक रहना चाहिये। और उस की प्राप्ति के लिये सदाकाल प्रयत्न दुर्बलताएं हैं, जिन्हें नीरम या शक्ति हीन बनाने के लिये करते रहना चाहिये । इस नोक परलोक में धर्म ही हमारा हमें इच्छाओं का निरोध करना प्रावश्यक है। क्योंकि प्रकारण बन्धु है-क्षक है। हमें उमी की शरया में जाना इच्छाएं मोह के मदभाव में उदित होती है। और वे जीवकी चाहिये।