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________________ "जगत राय की भक्ति" १३५ भक्त सहाय करी बहुतरी तिन के कथन पुरान बतायो। लगन रहत तुव प्रोरी। भई प्रतीनि सुनी जब महिमा तव 'जगराम' शरण चिन लायो। मनवां मेरा लाग्यो हो जिनेश्वर स्यौं । जैन भक्ति साहित्य में जिनेन्द्र के प्रतिमा-दर्शन को और न मोहि सुहाय कछु अब काम कहा पर मौं। महत्वपूर्ण स्थान मिला है। धानतराय, बनारसीदाम आदि जगतराम अपने प्राराध्य से किमी भौतिक पदार्थ सभी भक्तों के प्रतिमा-दर्शन से उत्पन्न प्रानन्द को व्यक्त अथवा मुक्ति की अभिन्नापा नहीं करतेः मुबुद्धि-दानी तथा करने वाले पद मिलते हैं। जगतराय भी जिन प्रतिमा के पाप विनाशिनी जिन मेवा तथा 'जिन' मंत्र का जप ही उन्हें दशन मात्र में अपने दम्वों के विनाश, हदय को प्रफलित अभीप्सित हैतथा अंग-प्रत्यंग को रोमाञ्चित पाकर गदगद हो उठे हैं - द हो जिनराज देव मेवा मोहि आपनी । प्रभु के दर्शन को भाये यावत ही दु.ख इंद नमाये । दन जो सुबुद्धि कुबुद्धि की उथापनी । देख दरम देऊनन मिराये निरम्वि-निरग्बि पुनि पुनि ललचाये। हूँ नो महा पातगी कह न अंग मातगी। सीम धारि कर चरन नमाये नमत नमत नेऊ न अधाये। सुनी में नरी सेवा है अनेक पाप कांपनी । हियरे-हरम-तरंग न माए तब सुर भरि रपना गुन गये। गुरौ 'जगराम' दास ग्राम प्रभु नाथ । अंग अंगनन पुलकित चाये अब सव काज मरे मन भाये । पाऊं नाम मंत्र के जपावन की जपावनी । 'जगतराय' सेवक सरमाये तीन लोक-पति माहिब पाये। जगतराय केवल इमी जन्म में अपने पाराध्य की सेवा के अभिलापी नहीं हैं प्रन्युन वह तो जन्म-जन्मांतरों में भक्ति की चरम परिणनि अनन्यता है । यह अनन्यता भी उनकी सेवा के उनके दर्शन व कथा श्रवण के भी सतत जगतराय के कई पदों में परिलक्षित होती है, जिसमे विदित आकांक्षी हैहोता है कि जगतराय की प्रीति तथा लग्न अन्य देवों की संवा फल यह पावृ तिहारी। अपेक्षा जिनेश्वर से ही लगी रहती है और उसके अतिरिक्त भव-भव म्वामि मिली नुमही ही सेवक हवं गुन गावू। उन्हें कुछ सुहाना नहीं तिहारी मृरति अपने ननन निरग्वि निरग्वि हरमाऊं। तो मो जारी प्रीति जिनराय निहारे चरण अपने करन ते अर्ध बनाय चढ़ावू । देव और मबनि माँ तारी। कथा निहारी अपने श्रवनन मुनत मुनन न अघावू । रम सब विरम भये तुम रम लम्बि, जगतराय प्रभु जबलों शिव द्यौ तबलौं हतना चितचावू। “जयपुर की संस्कृति साहित्य को देन-" श्री दलपतिराय और उनकी रचनाएँ प्रो० प्रभाकर शास्त्री एम० ए० । "भामेर" या "अम्बानगर" के शामक-महाराजाधि- प्रेमी थे और आपकी सभा में संस्कृत भाषा के कतिपय राज मिर्जाराजा रामसिंह प्रथम का नाम कछवाहवंशीय विद्वान सम्मानित थे। सम्मानित विद्वानों में एक श्री दलशासकों के इतिहास में प्रसिद्ध है । यह नगर राजस्थान की पतिराम या श्री दलपतिराय भी थे। वर्तमान राजधानी जयपुर से ६ मील उत्तर में जयपुर- श्री दलपतिराय का परिचय उपलब्ध नहीं होता। दिल्ली सडक पर स्थित एक प्राचीन रमणीक एवं ऐतिहा- केवलमात्र यह कहा जा सकता है कि इनका मुगल कालीन सिक स्थान है। मिर्जा राजा रामसिंहसंस्कृत भाषा के अत्यन्त शासकों से अच्छा परिचय था। उनकी रचनाओं के देखने
SR No.538017
Book TitleAnekant 1964 Book 17 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1964
Total Pages310
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size16 MB
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