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________________ भगवान महावीर के जीवन प्रसंग मुनि श्री महेन्द्रकुमारजी 'प्रथम' भारत की महान विभूतियों में भगवान श्री महावीर I का नाम है इसलिए नहीं जे गये कि वे एक राजकुमार ये कीर न केवल इसलिए भी स्मरणीय बने हैं कि उन्होंने उत्कट साधना की थी। क्योंकि साधना के द्वारा जीवन को निखारने वाले करोडों मानव हो चुके हैं, जिनमें गर्भ में समा कुछ एक इतिहास के केवल उभरने हुए पृष्ठों तक ही सीमित हैं । किन्तु जन-जन के मुख पर उनका कोई विशेष नाम नहीं है। जनता उन पुरुषों की विशेष या करती है, जिन्होंने अपनी साधना के साथ जन कल्याण के लिए भी भगीरथ प्रयत्न किया हो। भगवान महावीर एक ऐसी ही विभूति थे, जिन्होंने जितना प्रयान अपनी साधना के लिए किया था, उतना ही प्रयत्न जनता के सुसुप्त मानस में चित्रक का अलख जगाने के लिए। जनता अपने उपकारी काही दान्तकम करती है और उसके ही पावन चरणों में श्रद्धा के कोमल कुसुम चहा कर उऋणना का अनुभव करती है 1 भगवान श्री महावीर का बाल्य व योवन राजकीय वैभव के बीच बीता । उभरता हुआ यौवन जहां मनुष्य में अल्हड़ता व उन्माद जागृत करता है, वहां भगवान् महावीर को उसने असे विरक्ति की ओर मोदा तीस वर्ष की अवस्था में परित्रजक बने । साढ़े बारह वर्ष तक ये एकान्त स्थान में गिरि-कन्दराओं या सूने घरों में, सघन जंगलों में या हरे-हरे देवालयों में अपनी आमा को तपस्या व ध्यान के द्वारा निम्बार रहे उनका ध्यान केवल जाप तक ही सीमित नहीं था, अपितु उसमें सृष्टि के प्रत्येक पहलू पर, चाहे वह जढ़ हो या चेतन, सामाजिक हो या आध्यात्मिक, चिन्तन चलता था, जो सिद्धि प्राप्तकरने के अनन्तर वाणी द्वारा लाखों व्यक्क्रियों के हृदय में उत्तराव उनका आलोक बना। उनकी दृष्टि में जड़ और चेतन का समायी रूप । सामाजिकता और आध्यात्मिकता का संचलित रूप व्यक्ति के तब तक साथ रहेगा, जब तक वह साधना की कठिनतम मंजिल पार नहीं कर लेता । साढ़े बारह वर्ष की उत्कट साधना के बाद वे सत्य और अहिंसा के उपासक के रूप में नहीं, अपितु सत्यव अहिगामय ही बन गये थे । आत्मा की परम पवित्रता अहिंसा व सत्य के द्वारा होती है, यह स्थूल कथन है वस्तुतः तो हिमा या सत्य से व्यतिरिक्त कोई भी आत्मा हो भी नहीं सकती जितना प्रावरण इन पर पड़ा होता है उतना ही अवरोध रहता है, जिसका परिणाम अज्ञान या जड़ता होता है और उसकी अभिव्यक्ति भी साधना शब्द में की जाती है। कोई भी आदर्श प्रेरणा का रूप सब सोता है जबकि यह हार में उतरता है । भगवान् श्री महावीर अहिंसा व सत्य की प्रतिमूर्ति थे । अतः जनता के दिल में उनकी उन घटनाओं ने अधिक स्थान पाया जबकि उन्होंने अपने प्रथम साधु शिष्य गौतम स्वामी व सम्राट थे कि जैसे श्रावक को स्पष्ट शब्दों में एक को क्षमा मागने का निर्देश दिया तथा दूसरे को उसकी अपनी नरक-गमन की भवितव्यता जता दी। साधक सत्य का अवलम्बन करे, यह स्थूलता है, पर वह आत्मसात करे, यह प्रथम अपेक्षा है। जो मन्ग को श्रात्ममान कर लेना है, उसके समक्ष दूसरों की आमा भी निबरती है । गणधर इन्द्रभूति ( गौतम स्वामी) एकबारगी के लिए बाधिज्य ग्राम में पधारे। शहर में उन्होंने आनन्द श्रावक की पौषधशाला में आए । यानन्द ने शरीरिक श्रमामथ्र्य के कारण लेटे-लेटे ही वन्दना की और चरण स्पर्श किया । श्रानन्द ने कहा— भगवान गौतम ! क्या गृहस्थ को आमरण अनशन में अवधि- ज्ञान उत्पन्न हो सकता है। 1 गीतम हो. हो सकता है। आनन्द मुझे अवधिज्ञान में उत्तर में चलू' हेमन्त " हुआ है और उससे तक दक्षिण पश्चिम श्रीर पूर्व में पांच सो योजन लवण समुद्र तक, ऊपर सौधर्म देवलोक तक और नीचे प्रथम नरक के लोलुप नश्कचास तक देवने व जानने लगा है। - गौतम आनन्द गृहस्थ को इतना विशाल अवधि-ज्ञान नहीं मिल सकता । अनशन में तेरे से यह मिथ्या सम्भाषण हुआ है, अतः तू इसकी आलोचना या प्रायश्चित कर । श्रानन्द--प्रभो ! महावीर प्रभु के शासन में सत्याचरण का प्रायश्चित होता है या असत्याचरण का ?
SR No.538017
Book TitleAnekant 1964 Book 17 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1964
Total Pages310
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size16 MB
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