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________________ ११४ अनेकान्त इस प्रकार ईसा की तेरहवीं-चौहवी शताब्दी में जैनों उपेक्षा की दृष्टि से नहीं देखा जा सकता । चरितात्मक ने संस्कृत महाकाव्य-साहित्य की जो देन दी है वह परिमाण महाकाव्यों की भी अपनी अलग महत्ता है। यह ठीक है में ही नहीं, गुणों की दृष्टि से भी महत्वपूर्ण है । उपमें कि इन महाकाव्यों में 'धर्मशर्माभ्यदय', 'नग्नारायणानन्द' भाषा-शली गत विभिन्नता उपलब्ध होती है। एक अोर पदमानन्द' 'बालभारत' श्रादि काव्यों जेसी साज-सजा, उसने 'धर्मशर्माभ्युदय' और 'नरनारायणानन्द' जैसे कॉट-छांट और चमक-दमक नहीं है, यह भी ठीक है कि शास्त्रीय रीतिबद्ध काव्य प्रदान किए हैं जिनका मूल्य प्रालो- इनमें प्रयत्नमाध्य अलंकार कृत्रिम भाषा, उक्तिचित्य आदि चना के किसी भी मानदण्ड से भार्गव के 'किरातार्जुनीय' गण नहीं है, फिर भी उनमें पौन्दर्य है, वैसा ही महज और माघ के 'शिशुपालवध' से कम नहीं है, तो दूसरी ओर मौन्दर्य जैमा किमी अनगढ़ जंगल का होता है, उपवन का 'बालभारत' और 'पदमानन्द' जैसे रस मग्न करने वाले प्रवन्न साध्य सौन्दर्य नहीं। उनका यह सौन्दर्य उनकी महाकाव्य दिए हैं। गजरात के इतिहास को सुरक्षित रखने मादगी, सरलता और अनलङ्कति में हैं और इसी के कारण में जो योग इस युग के ऐतिहासिक महाकाव्यों का है उसे उनका स्थाई महत्त्व हैं । जैन दर्शन और पातञ्जल योगदर्शन साध्वी श्री संघमित्राजी दर्शन केवल चिन्तन नहीं, साक्षात्कार है। साक्षात योगशब्द पर विचार श्रामगम्य होता है और इन्द्रिय गम्य भी । प्राप्मा में योगशब्द युज धातु से व्युत्पन्न है । युज धातु की मुल होने वाला साक्षात्कार प्रग्यवहित और अत्यन्त म्पष्ट होना प्रकृति द्वयर्थक है युजिर 'योगे' और युजड़च 'समाधी' । है । वह परमार्थ प्रत्यक्ष कहलाता है । इन्द्रियों के माध्यम व्याम भाप्य में समाध्यर्थक युज धातु का संकेत है । हरिभद्र से होने वाला साक्षात् प्यवहित होता है अतः वह अम्पष्ट ने योगार्थकर युज धातु को ग्रहण किया है । दोनों दर्शनों रहता है और व्यवहार प्रत्यक्ष कहलाता है। जिनका साक्षात में योग शबद की प्रावृत्ति सम हात हुए भी प्रकृति भिम है। जितना अधिक प्रारमा के निकट होता है, मन्य को वह योगशब्द के अर्थ पर विचार उतना ही अकि पकड़ पाता है। महर्षि पनजलि के अनुसार योग समाधि है। यह एक बिन्दु पर केन्द्रित दो मनुष्यों की दृष्टि एक ही सर्वोत्तम समाधान है। यह समाधान शरीर का नहीं है, रूप को देखती है, पर एक ही परमार्थ के साक्षात्कार में इन्द्रियों का नहीं हैं, किन्तु मन का समाधान है २ । ३, जहां ऋषियों के दर्शन ने विभिन्न रूप क्यों लिए । इस का मानसिक वृत्तियों का पूर्ण समाधान हो जाता है, शेष संस्कार स्पष्ट समाधान है कि सबके साक्षात् का माध्यम प्राम-गम्य भी विदग्ध हो जाते हैं, वहीं योग की पूर्ण प्राप्ति है। ही नहीं रहा। महर्षि चार्वाक का प्रत्यक्ष इन्द्रिय गम्य था। जैन दर्शन में योगका अर्थ है-जोडना । यह दो भिन्न तत्वों कुछ महर्षियों का साक्षात् श्रामगम्य होते हुए भी अधूरा था। को मंयोजित करता है । अध्यात्म क्षेत्र में योगवह है जो प्रात्मा इस अधपन और साक्षात्कार के माध्यम भिन्न-भिन्न थे को मोन से जोड़ता है। इस दृष्टि से धर्म के सभी व्यापार योग अतः दर्शन की धाराएं भी विभक्त हो गई। ही हैं ४ । निश्चय दृष्टि से योग 'ज्ञान दर्शन चारित्र' है। भारत में अनेक दर्शन पनपे । उनमें पातम्जल योग १-योग वि० श्लो०१ दर्शन भी एक है, जो महर्षि पतञ्जलि का प्रत्यक्ष है। २-न्यास भा० १ जैन दृष्टि से पातम्जलयोग दर्शन का अध्ययन करना प्रस्तुत ३-व्यास भा० १ पृ. ५ निबन्ध का अभिप्रेत है। ४-योग वि० श्लोक
SR No.538017
Book TitleAnekant 1964 Book 17 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1964
Total Pages310
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size16 MB
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