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________________ जैन दर्शन और पाताल योगदर्शन ११५ उनकी उपलब्धि का प्रकृष्टतम माध्यम व्यवहार योग है। अहंकार और षोडशगण पैदा होते हैं। प्रकृति ही बन्धन योग का स्वरूप मित्त-वृत्तियों का निरोध है। चित्त- को प्राप्त होती है और यहीं मुक्त होती है। पुरुष में बन्ध वनियों का निरोध जहां में प्रारम्भ होता है. योग का अंकुर और मोक्ष की कल्पना उपचार मात्र है। वहीं में फूटता है । चिन की पांच भूमिका है-क्षिप्त, पुरुप प्रकता है. निगुणा है, भोक्ता है, अपरिणामी मृढ, विक्षिप्त, एकाग्र, निमद्ध। क्षिप्तावस्था रजोगुण प्रधान है। न उसके बन्धन होता है और न वह मुक्त होता है। है । इसमें चित्त विषयों में प्रामक्त बना रहता है मुढा- प्रकृति और पुरुष के बीच में बुद्धि है। बुद्धि उभय वस्था तमोगुण प्रधान है। इस अवस्था में चित्त मोह से मुम्ब दर्पयाकार है। उसमें एक और पुरुष का प्रतिबिम्ब प्रभावित रहता है। काम, क्रोध, लोभ उभरे हए रहते हैं। पढ़ता है। दूसरी और बाह्य जगत का । पुरुष के प्रतिबिम्ब विक्षिप्त अवस्था में चिन चल रहता।कान अवस्था से बुद्धि अपने में चेतना का अनुभव करती है। बुद्धि प्रतिमें चिन की वनियां का प्रवाह किर्म। एक विषय पर केन्द्रित बिम्बित मुख-दुम्ब का प्राभाय पुरुष का होता है, यही पुरुष हो जाना है। निगढ़ अवस्था समग्र प्रतानियों में शून्य है। का भोग है । पर यर्थाथ में पुरुष में कोई परिवर्तन नहीं जैन दर्शन में इन चिन भूमकानी की प्रतिरछाया हाता। प्रकृतिम अपने किमी भी प्रयोजन की गणना न करती यत्र-तत्र प्रतिरदायित। मुनि की भिक्षा-विधि के विवेचन हुई पुरुष के भोग और अपवर्ग के लिए प्रवृत्त होती है। में बताया गया है:-बन्याक्षिप्त चिन में मनि गोचरी प्रकृति पुरुष का मंयोग प्रकृति पुरुष के स्वरूप की उपलकरे। अव्याक्षिप्त ३शब्द में क्षिप्न और विक्षिप्त दोनों भूमि- ब्धि के लिए ही होती है। जब पुरुष अपने म्वरूप में काओं का पकत है। प्रनिष्ठिन हो जाता है, तब प्रकृति भी निवृत्त हो जाती है। अज्ञानियों के स्वरूप की व्याख्या देते हुए कहा गया दृष्टा पुरुष है और रश्य जब प्रकृति है। लक्ष्य प्राप्ति में है-४ मोह में जो पावन है, वे मृट है- अज्ञानी है । इम दोनों का अन्धे लंगर का मा प्रयोग है। प्रतिपादन में मृढावस्था का प्रतिबिम्ब है। पानम्जल योग दर्शन की यह मान्यता जैन दर्शन में ध्यान के विश्लेषण में प्राया है- ध्यान वह है, जहां मामा और कर्म के माथ मटित होती है। जैन दर्शन के एकाग्र-चिन्तन होता है अथवा योगों का निरोध होना है। अनुसार प्रान्मा और कर्म का सम्बन्ध अनादि है। कम ध्यान की व्याख्या में योग-दर्शन की एकान और निमन्द विमान Mata चित्त-भूमिका अभिव्यजित हो रही है। और स्वतन्त्र मामा के कभी कर्म का बन्धन नहीं होना । मांथ्य दर्शन में प्रकृति और पुरुष का अनादि सम्बन्ध कर्म महिन प्रान्मा ही कर्म का मर्जन करती है। उसक ही है। मत्त्व, रजम , तम इन तीनों की माम्यावस्था ५ का बनता । जैन दर्शन मानता. बर्मalal नाम प्रकृति है। के कंध समग्र लोक में फैल हुए हैं और वे वहां भी है प्रकृति की यह माम्यवस्था की रश्य नहीं बनती। जो जहां मुक्त प्रमाणे निवास करती है। वहां उनके कभी दृश्य है, वह इनकी विकृत अवस्था है। बन्धन नहीं होता । इम, मान्यता के आधार पर यह प्रकृति निग्य है, जब है, कर्मों की कर्ता है, परिणामी प्रमाणित होता है कि किमी अपेक्षा कर्म के ही कर्म का है। मंमार की मृष्टि का मूल प्रकृति है । इसमे बुद्धि, बन्धन होता है। कर्म ही प्रकृति की तरह कर्म का मजन करता है । जिसके बन्धन होता है, वहीं मुक्त होता है। 1-पा.यो. द. सू०२ दुःश्व क्या है ? दुःस्व का नु क्या है ? दुःख का प्रभाव २-यास. भा.१,पू०१ २-६०भ०५.१ली . २ -पा.यो. प्रदीप पृ.३२. ४-मा. श७४ -पा.यो.द. मा. मू. २१ ५-हरिभद्र मूरि कृत-षड्-दर्शन रखोक ३६ -पा० यो० द. मा. सू. २३ ६-हरिभद्र मूर कृत-पद-दर्शन श्लोक, १.-पड-दर्शन श्लोक ४२
SR No.538017
Book TitleAnekant 1964 Book 17 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1964
Total Pages310
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size16 MB
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