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________________ ११६ अनेकान्त क्या है। दुःख निवृति का साधन है ? मानव की सहज उपाय प्रत्यय । योगीजनों की समाधि उपाय प्रत्यय होती जिज्ञासा से भरे हुए ये चार प्रश्न कितने महत्वपूर्ण हैं। है। विदेह और प्रकृति लयों में भवप्रत्यय समाधि होती पतञ्जलि की दृष्टि में इन प्रश्नों का समाधान इस प्रकार से है। असा दृष्टा पुरुष है। दृश्य प्रकृति है। दष्ट और दृश्य विदह व कहलाते हैं - जो योगी प्रानन्दानुगत सम्प्रज्ञात का संयोग ही दुःख है। इस संयोग का कारण अविद्या है ।२ समाधि में चेतन तस्व की स्पष्ट अनुभूति करते हैं। उसीको अविद्या का प्रभाव हो जाने से संयोग का भी प्रभाव३ हो श्राम स्थिति समझकर रुक जाते हैं। इस प्रकार के योगी जाता है। यह हान अवस्था है । यही दृष्टा का केवल्य और शरीर को त्याग कर दिव्यलोक से भी ऊपर बहुत अधिक प्रकृति को मुक्तावस्था है। समय तक कैवल्य जैसे प्रानन्द को भोगते हैं। पुरुष को स्व और प्रकृति के विषय में भेद ज्ञान हो प्रकृनि लय वे कहलाते हैं, जो अस्मितानुगत समाधि जाना विवेकख्याति कहलाती है ।४ यह विवेक ख्याति ही हान में चेतन तत्व की अत्यन्त स्पष्ट अनुभूति करते हैं। उमीका का उपाय है। शामस्थिति समझ लेते हैं। वे शरीर को त्यागने पर इस जैन दर्शन कहता है-श्रामा और कर्म का संयोग ही अवस्था में दिव्यलोक से भी अधिक अवधि तक कैवल्य जैसे यथार्थ में दुःख है। यह संयोग नहीं होता तो दुःख भी अनन्त आनन्द का अनुभव लेते रहते हैं। ये जब पुनः नहीं होता । दुःख के हेतु अनेक है. जिनमें मिथ्या-ज्ञान ही मानवदेह में पाते है, तब उन्हें जन्म से ही श्रमम्प्रज्ञात सबसे पहला है। यही संसार की जड़ है। जड के टूट जाती। जाने से दुःख का वृक्ष भी शिथिल हो जाना है। दुःख का प्रभाव मुक्ति है । दुःख निवृत्ति के चार मार्ग जैन दर्शन में भी कुछ इसी प्रकार के रहस्य उदघटित हैं-इनमें ज्ञान का स्थान पहला है। यही पतञ्जलि की। हैं-लव सप्तम देव उपशान्त कषाय वाले होते हैं। योगी विवेक-व्याति है। उपयुक्त चार प्रश्नों को चतुव्यूह कहा ध्यान में कर्मों का क्षय करते हए चलने है । जब सप्त लव गया है। इस चतुम्यूह के समाधान में जैन-दर्शन और । जितने कर्म शेष रह जाते हैं, तब आयु टूट जाता है। यदि पातञ्जल योग दर्शन में विशेष निकटता है। इतना सा लम्बा प्रायु होता तो समग्र कर्मो का क्षय कर मुक्त हो जाता पर ऐसा न होने पर वे अनुत्तर विमान में अविद्या की व्याख्या करते हुए पतञ्जलि ने कहा जाते है और वे अन्य सब दवों में बहुत अधिक समय तक अनित्य ५ को नित्य, अपवित्र को पवित्र, दुःख को मुम्ब और उपशान्त समाधि का अनुभव करने है। अनात्मतत्व में प्रात्मतत्व ज्ञान को मान लेना ही अविद्या अनेकान्तबाद भगगन महावीर की मालिक देन है। जैन दर्शन का समग्र प्रतिगदन इस पर टिका हुअा है। जैन दर्शन कहना है-प्रतत्व में तस्त्र बुद्धि मिथ्या योग दर्शन में भा अनेकान्त दृष्टि के प्रतिबिम्ब मिलते हैं। ज्ञान है ६ । सामान्यतः यह मिथ्याज्ञान और अविद्या की बुद्धि और पुरुष ६ के मरूप और विरूप पर विवेचन करते परिभाषा भी किननी सुन्दर और समकक्ष बनी है। हुए योग दर्शन में लिखा है-बुद्धि त्रिगुणात्मिकता है। समाधि के प्रकारों का विश्लेषण करते हुए पतञ्जलि त्रिगुण प्रकृति के धर्म हैं । प्रकृति अचेतन है । बुद्धि प्रचेतन कहते हैं -समाधि दो प्रकार की होती है-भव प्रत्यय और प्रकृति से उत्पन्न है । पुरुष गुणों का दष्टा है। वह त्रिगु५-पा० यो०६० सा० सू० २३ णात्मक नहीं है; अतः प्रकृति पुरुष सरूप नहीं है । पर २-पा० यो० द. सा. सू. २४ प्रत्यन्त विरूप भी नहीं है, क्योंकि बुद्धिज प्रतीतियों को ३-पा० यो० द० सा० सू० २५ ४-पा० यो० द. सा. सू. २६ .-पा. यो. द. ११९६ । ५-पा. द. सा. मृ.। ८-पा.यो. प्रदीप १८७ ६-० सि.दी. ७३ । ६-पा० यो० द. भा० पृ० ११२ । है।
SR No.538017
Book TitleAnekant 1964 Book 17 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1964
Total Pages310
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size16 MB
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