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________________ २४ अनेकान्त प्रतीत्यन्तराव्यवधान ( दूसरे किसी ज्ञानका व्यवधान न होना) यह साक्षात् शब्द का स्पष्टीकरण दिया है। परिच्छेद ३ से १० तक प्रत्यक्ष के भेदों तथा श्राभासों का वर्णन है ।. लेखक ने प्रत्यक्ष के चार भेद किये हैं- इन्द्रिय प्रत्यक्ष, मानम प्रत्यक्ष, योगीप्रत्यक्ष तथा स्वयंवेदन प्रत्यक्ष इन्द्रिय प्रत्यक्ष के लिए सांव्यवहारिक जैसे किसी शब्द का प्रयोग नहीं किया है। अपने आपके वृद्धि, मुख, दुख, इच्छाद्वेष प्रयत्न आदि के बारे में मन द्वारा होने वाले ज्ञान को मानस प्रत्यक्ष कहा है। योगि प्रत्यक्ष में केवलज्ञान, मन:पर्ययज्ञान तथा अवधिज्ञान का समावेश किया है। ज्ञान को अपने स्वरूप का जो शान होता है उसे स्वमवेदन प्रत्यच कहा है। प्रत्यक्ष प्रमाण का यह चार प्रकार का विभाग आचार्य की मौलिक प्रतीत होती है। हमारे अध्ययन में अन्य सूझ किसी जैन आचार्य का इस तरह का विभाजन ज्ञात नहीं हुआ। प्रत्यक्ष के प्रभास में लेखक ने संशय विपर्यास इन दो भेदों का ही समावेश किया है। अनध्यसायको व ज्ञान का अभाव मानते हैं और इसलिए ज्ञान के आभास में उसे समाविष्ट नहीं करने परोक्ष प्रमाण के मेद परोक्ष प्रमाण के भेदों में भी आचार्य ने एक नई बात जोड़ी है। स्मृति प्रत्यभिमान, तर्क, अनुमान और भागम इन पांच पूर्व प्रचलित भेदों के साथ ऊहापोह यह नया भेद उन्होंने जोड़ा है। इससे यह होता है, इसके बिना यह नहीं होता इस तरह के साधारण शान को ऊहापोह कहा है, जैसे-इच्छा पूर्ण होने पर पत्र को प्रसन्नता होती है, इच्छा अधूरी रहने पर सबको खेद होता है प्यादि । स्मृति से तर्क तक का वर्णन परिच्छेद ११ से १४ तक है । अनुमान के मेद परिच्छेद १६ से २१ तक अनुमान के छह अवयवों का पक्ष, साध्य, हेतु, दृष्टान्त उपनय तथा निगमन का वर्णन है। हेतु के लक्षण के बारे में विशेष विचार परि० २२ से २५ तक है। इसके अनुसार व्याप्तिमान परधर्म ही हेतु होता है। अन्यथानुपपत्ति को हेतु के में लक्षण चार्य ने स्थान नहीं दिया है। परि०२६ २८ तक अनु मान के मन मेदान्ययी, केवलव्यतिरेकी तथा अन्वयव्यति रेक बताये हैं तथा परि० २३ में दृष्ट, सामान्यतोदृष्ट 1 तीन मे बनाये है जिनकी व्याप्ति प्रत्य हो तथा जिसका माध्य भी प्रत्यक्ष से जाना जा सके वह दृष्ट अनुमान है, जिसकी व्याप्ति सामान्यतः प्रत्यक्ष से जानी जाये किन्तु साध्य श्रतीन्द्रिय हो वह सामान्यतोदष्ट अनुमान है, जिसकी व्याप्ति तथा साध्य दोनों अतीन्द्रिय हैं (केवल धाम मे जाने जाते हैं वह ट अनुमान है। अनुमानाभास परि० ३० से ४२ तक अनुमान के आभास का वर्णन है। इसमें प्रसिद्ध विरुद्ध अनैकान्तिक, धनध्यवसित, कामात्ययापदिष्ट तथा प्रकरणमम ये दयाभाय तथा उनके उपभेद समाविष्ट है एवं बारह दृष्टान्ताभास समाविष्ट हैं । तर्क एवं से जानी जाती परोक्ष प्रमाण के भेदों में नर्क का समावेश किया है यथा व्याप्ति का ज्ञान यह उसका स्वरूप बनाया है। परि० ४३४४ में इससे भिन्न अर्थ में तर्क शब्द का प्रयोग किया है, म्याप्ति के बल से प्रतिपक्ष को अनिष्ट बात सिद्ध करना यह तर्क का लज्ञा बतलाया है । आत्माश्रय, इतरेतराश्रय चक्रकाश्रय, अनवस्था तथा प्रतिप्रसंग ये तर्क के भेद हैं तथा मूल में शिथिलता, परम्पर विरोध प्रतिवादी की इष्ट बात मानना तथा उसकी विरुद्ध बात को सिद्ध न करना ये चार तर्क के दोष बतलाये है। छल, जातो व निग्रहस्यान परि० ४७ से ४८ तक छल के तीन प्रकारों का - वाक्छल, सामान्य छल तथा उपचारछल का परंपरागत पन है। परि० ४३ से ६६ तक चौबीस जातियों का वर्णन है। आचार्य के मतानुसार जातियों की संख्या बीस होनी चाहिए क्योंकि बसमा प्रतिदृष्टान्तसमा प्रर्थापत्तिसमा व उपपत्तिसमा तथा अनित्यसमा ये जातियां क्रमशः माध्यममा, साधर्म्यसमा प्रकरयसभा तथा प्रविशेषसमा जातियों से प्रभिन्न हैं, इस प्रकार पांच जातियां कम करके सिद्धादिसमा जाति का अधिक समावेश करते हैं। परि० वे ७० तक बाईस निग्रह स्थानों का परंपरागत दर्शन है । परि० ८५ में छल आदि के प्रयोग के बारे में निर्देश दिये हैं । (शेष पृष्ट ३४ पर)
SR No.538017
Book TitleAnekant 1964 Book 17 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1964
Total Pages310
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size16 MB
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