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________________ महावीर का गृह त्याग माता पिता का चरण स्पर्श कर महावीर पालकी में अपने जीवन को पवित्र कर रहा था। अचानक आकाश से विराजमान हुए । महाराज सिद्धार्थ की प्रांवों से आंसू टपक भी पुष्प वृष्टि होने लगी। देव भी उनके दीक्षा में जो पड़े। माता त्रिशला के स्तनों से दूध झरने लगा। जिस मम्मिलित थे। एक छोटी मी बदली प्राई और लगी लाडले पुत्र को उन्होने प्राणों से भी अधिक समझ कर फुहार बरसाने मानो वह भी महावीर के गृह त्याग के कारण पाला था उसे वे ही प्राज श्रमण बनने के लिए विदा दे नेत्रों से प्रांमू बरमा रहा हो। रहे थे । राजमहल के चारों ओर गम्भीर एवं करुण बाता कुछ दूरी पर पालकी में चले ही थे कि देवों ने भी बरण बन गया था । महावीर ने सबको अभिवादन किया। , पालकी को अपने कंधों पर उठा लिया । महावीर स्कंध बन राजमहल के दामी दाम एवं परिचारिकाओं से हाथ जोड़ पहुंचे। वह सघन बन था। भंवर गुंजार कर रहे थे। कर क्षमा मांगी। सभी के नेत्र सजल थे। कोयल कूक रही थी। वे सब महावीर का स्वागत कर रहे तुरही, भेरी, घन्टा एवं झांझर की जय घोष के साथ थे। फूल खिल रहे थे और पत्ते लाल हो गये थे। महावीर महावीर राजमहल से रवाना हुए। चारों ओर जय-जयकार पालकी से उतरे । अपने साथ श्राने वाले विशाल जन समूह होने लगी । राजकुमार महावीर की जयघोष से आकाश से अन्तिम विदा ली । महाश्रमण महावीर की जयघोष मे गृज उठा। चारों ओर से पुष्प वर्षा होने लगी। महावीर मारा धरातल एवं प्राकाश गूज - ठा। शीघ्र ही उन्होंने सबसे अन्तिम पिदा मांग रहे थे। ग्थान स्थान पर उनकी वस्त्र प्राभरण उतार कर फेंक दिए और दिगम्बर हो गए। भारती उतारी जा रही थी। फूल मालायें पहनायी जाती पिद्धों को नमस्कार कर अपने हाथों से अपने फेशों को थी। तिलक किया जाता था और चरण स्पर्श से मानव उतार कर फेंक दिया और वे पर निर्गथ हो गये। * आचार्य भावसेन के प्रमाणविषयक विशिष्ट मत ( डा० विद्याधर जोहरा पुरकर, जावरा) प्रास्ताविक सिद्धान्तमारे मोक्षशास्त्रे । प्रमाणनिरूपण नाम प्रथमः तरहवीं सदी के सेनगण के प्राचार्य भावसन विद्यदेव परिच्छेदः ।। के विषय में एक टिप्पण हमने अनेकान्त के पिछले अंक शायद इसीलिए इस पर ग्रंथ में प्राचार्य ने कोई उप(दिसम्बर ६३) में प्रकाशित करवाया है । इनक विश्वनस्व. विभाग या प्रकरण नहीं किए है। अध्ययन तथा अनुवाद प्रकाश का प्रथम संस्करण जीवराज जैन ग्रन्थमाला, शोला- की सुविधा के लिए हमने १३. परिच्छेदों में इसे विभाजित पुर द्वारा शीघ्र ही प्रकाशित हो रहा है । इसके सम्पादन के किया है । इसमें प्राचार्य भावसन ने प्रमाणों के विषय में सिलसिले में प्राचार्य भावसेन के दूसरे ग्रन्थ प्रमाप्रमेय की कई वैशिष्ट्यपूर्ण मत व्यक्त किये हैं । अत: यहां कुछ विस्तार की एक तार पत्रीय प्रति हुम्मच के श्री देवेन्द्रकीनि-मठ से इस ग्रन्थ का परिचय दे रहे हैं। में हमने देखी। यह कन्नड लिपि में है । मैसूर के श्री पम- प्रमाण का लक्षरणनाभ शर्मा के सहयोग से इसकी देवनागरी प्रतिलिपि हमें प्राप्त पहले परिच्छेद में मंगलाचरण तथा अन्य का विषयहुई । इसी पर से इस प्रन्य का संपादन करने का प्रयास निशक करके दूसरे परिच्छेद में लेग्वक ने प्रमाण का सामाहमने किया है। प्रन्थ का नाम प्रमाप्रमेय सूचित किया है। न्य लक्षण सम्यक ज्ञान अथवा पदार्थ याथात्म्यनिश्चय यह श्री वर्धमानं सुरराजपूज्यं साक्षात्कृताशेषपदार्थतत्त्वम्। बतलाया है। इस विषय में उन्होंने स्वापूर्वार्थव्यवसाय अथवा सौख्याकरं मुक्तिपतिं प्रणम्य प्रमाप्रमेयं प्रकटं प्रवक्ष्ये ॥ अनधिगतार्थग्रहण जैसे विशेषण का प्रयोग नहीं किया है। किन्तु अन्तिम पुष्पिका में इस सिद्धान्तसार-मोक्षशास्त्र प्रत्यक्ष प्रमाणका प्रमाण निरूपण नामक पहला परिच्छंद बताया है। इति प्रत्यक्ष प्रमाण के लक्षण में लेखक ने स्पष्ट या विशद परवादिगिरिसुरेश्वर श्रीमद्भावसन -विद्यदवविरचित शब्द के स्थान पर साक्षात् शब्द का प्रयोग किया है तथ
SR No.538017
Book TitleAnekant 1964 Book 17 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1964
Total Pages310
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size16 MB
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