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________________ १५६ जैन धर्म में मूर्ति पूजा समाविष्ट करते हैं । गृहस्थों के मूल गुणों में उन्होंने इस प्रतः सांसारिक सुख की प्राप्ति यह जैन मूर्तिपूजा का वर्णन नहीं किया है । सोमदेव प्राचार्य ने यशस्तिलक का उद्देश्य नही है। में सामायिक शिक्षावत में पूजा का अन्तर्भाव किया है... जिन भगवान की पूजा का वास्तविक उद्देश स्वामी प्राप्तसेवोपवेश: स्यात् समयः समयापिनाम् नियुक्तं तत्र यत् कर्म तत् सामायिकमूधिरे ॥ समन्तभद्र ने स्वयम्भूस्तोत्र में प्रकट किया है न पूजार्यस्त्वयि वीतरागे न निन्दया नाय विवान्तवरे । ६. जैन मूर्ति पूजा का उद्देश्य तथापि ते पुण्यगुणस्मतिर्नः पुनातु चित्त दुरिताञ्जनेभ्यः ।। उपयुक्त वर्णन के बावजूद यह स्पष्ट है कि कम से कम दो हजार वर्षों से जैन समाज मे मूर्ति पूजा प्रचलित अर्थात् -हे भगवन् माप वीतराग है इसलिए है । ईसवी सन के प्रारम्भ के समय की कुछ मतिया । प्रापकी पूजा से लाभ नहीं तया प्रापवरहीन हैं इसलिए मथुरा से प्राप्त हुई है उनसे सिद्ध होता है कि तब भी प्रापको निन्दा से भी लाभ नहीं, फिर भी प्रापके पवित्र जैन समाज मे मूर्ति पूजा प्रचलित थी। प्रतः यह देखना गुणा का स्मृति हमारे मनको पाप रूपी कालिख से मुक्त - चाहिए कि इस का कोनसा उद्देश जैन दर्शन के अनुकूल पवित्र करे (यही अापकी पूजा का उद्देश है)। तात्पर्य - हो सकता है। जैन मूर्ति पूजा किसी वैयक्तिक सुख-लाभ भगवान जिनेन्द्र के पवित्र गुगो को स्मृति होना और (धन मिलना, रोग दूर होना, पुत्र होना) के लिए नही उन गुणों को प्राप्त करने के प्रयास की पोर प्रेरणा को जाती क्योंकि जैनों के प्राराध्य देव तीर्थङ्कर- मिलना यही देवपूजा का वास्तविक उचित उद्देश है। सिद्ध पद को प्राप्त हुए वीतराग महापुरुष है = वे ससार के किसी जीव के सुख-दुःख मे रुचि नही रखते। हम ७ वर्तमान पूजा पद्धति यद्यपि पूजा के प्रारम्भ मे कहते है कि हे भगवन् पत्र प्रव हमे यह देखना चाहिए कि इस समय जैन समाज मागच्छ प्रत्र तिष्ठ (यहाँ पाइये और ठहरिये) तथा मे पूजा की जो विभिन्न पद्धतियां है वे इस उद्देश से अन्त मे यह भी कहते हैं कि जिन देवों को यहाँ बुलाया कहाँ तक सुस गत है । इन पद्धतियों में सब से अधिक तथा पूजा की वे अपने स्थान को वापस जाये (ते मया- चमक-दमक वाली पद्धति श्वेताम्बर मन्दिर मार्गी भाइयों भ्यचिना भक्त्या सर्वे यान्तु निजालयम्) तथापि यह हमें में रूढ है । इस पद्धति में अभिषेक और पूजा के साथ अच्छी तरह मालम है कि तीर्थकर भगवान यहाँ न पाते देवभूति को वस्त्र और प्राभूषण भी पहनाये जाते हैं तथा है,न वापस जाते है। मासारिक मुख मिलने की प्राशा मूति का भौहों के स्थान पर लाख तथा माखों में कांच से उन की पूजा करना किसी तरह उचित नहीं है । या रत्न लगाये जाते हैं। स्पष्टतः यह पद्धति वीतराग चक्रेश्वरी, पदमावती, ज्वालामालिनी प्रादि की पूजा तो भाव का स्मरण कराने वाली नहीं है। साथ ही इससे सुख की प्राशा से करने में कोई प्रर्य हो सकता है क्योंकि मूर्तियो का स्वाभाविक सौन्दर्य भी प्राच्छादित या ये देषिया सराग है प्रतः कुछ हद तक भक्तों की सहायता विकृत होता है । श्वेताम्बर परम्परा के अनुसार भी कर सकती है। किन्तु वीतराग जिनेन्द्र की पूजा का यह भगवान ऋषभदेव तथा भगवान महावीर ने निर्वस्त्र रूप उचित उहश नही हो सकता । वीतराग जिनदेव किसी मे दीर्घकाल तक विहार किया था। उन्ही की मूर्तियों पर प्रसन्न होकर सुख नहीं देते अथवा कुपित होकर दुःख को वस्त्र-भूषण पहनाना वस्तुत. सुसंगत नही है। इस नहीं देते। मनुष्य का मुख दुख उसी के अपने कर्मों का पद्धति से कुछ सादी रीति दिगम्बर समाज के बोसपंथी परिणाम है, जैसा कि अमितमति प्राचार्य ने कहा है-, भाइयों में रूढ़ है। वे मूर्तियों को वस्त्राभूषण निजाजित कम विहाय देहिनी नही पहनाते या लाख-कांच नही लगाते । किन्तु पुष्पन कोऽपि कस्यापि ददाति किञ्चन । हार मतियों के गले में पहमाल है, चरणो को चन्दन
SR No.538017
Book TitleAnekant 1964 Book 17 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1964
Total Pages310
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size16 MB
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