SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 245
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ कल्पसूत्र : एक सुझाव कुमार चन्द्रसिंह दुषौरिया, कलकत्ता सम्वत्सरी की परम पावन तिथि पर जैन समाज मे आचार्य श्रीमद भद्रबाहू द्वारा विरचित कल्पसूत्र के वाचन एवं श्रवण की परम्परा है। परन्तु कालान्तर के प्रभाव से इनके प्रति सर्वसाधारण जैन जनता के आग्रहभाव मे क्रमशः ह्रास होता जा रहा है, जिसे कदापि शुभ नही माना जा सकता है । जैन धर्म और जैन दर्शन की वह अमूल्य निधि - कल्पसूत्र, घर्धमागधी किंवा प्राकृत भाषा मे है और इसी भाषा मे जो अब मतप्राय है— इसका वाचन होता है जिसे युवा पीढी समझ नही पाती । यही कारण है कि इम अनमोल सूत्र के प्रति नवयुवको मे उदासीनता बढती जा रही है । मेरे इस कथन के पीछे इस सूत्र के वाचन एवं श्रवण की प्रचलित परिपाटी के प्रति किसी प्रकार की अनास्था अथवा अश्रद्धा का भाव कदापि नही है । मैं तो इस तथ्य की ओर समाज का ध्यान आकृष्ट करना चाहता हूँ कि जिस काल मे आचार्य भद्रबाहु महाराज ने इस महान सूत्र को विरचित किया, उस समय अर्धमागधी ही सर्वसाधारण की भाषा थी । संस्कृत को छोड़ कर अर्धमागधी मे कल्पसूत्र को विरचित करने के पीछे भी प्राचार्य महाराज की यही भावना प्रतीव होती है कि वह हम सूत्र को सर्वसाधारण के लिए अधिकाधिक बोधगम्य एवं व्यापक बनाना चाहते थे। इसीलिए उन्होने इस सूत्र की तत्कालीन लोकभाषा मे रचना की । श्रतएव इस कल्पसूत्र का हिन्दी एवं अन्य प्रादेशिक भाषाओ मे रूपान्तर करने की प्रोर जब हमारी दृष्टि जाती है तो वह धाचार्य श्रीमद् भद्रबाहु महाराज के दृष्टिकोण एवं भावनाओं के सर्वथा अनुरूप ही है। इस ममूल्य सूत्र की सार्थकता वस्तुत इसे अधिकाधि सरल एवं बोधगम्य बनाने मे है । यदि समय रहते इस अनमोल कल्पसूत्र को बोधगम्य न बनाया गया तो उसमे निहित भावनाओं एवं आदर्शो की जानकारी के अभाव में पर्यापता एवं क्षमायाचना का हमारा यह पर्व केवल एक परम्परागत रीति के रूप मे ही रह जायगा और जिस महान आदर्श एवं लक्ष्य को यह अपने में सजोये हुए है वह शनै शनैः विलुप्त होता जायेगा । . वर्तमान वस्तुवादी युग और सभ्यता की पाध में धर्म एवं धार्मिक विषयों के प्रति लोगों की आस्था, निष्ठा एवं चि मे यो ही कमी होती जा रही है। ऐसी स्थिति मे कल्पसूत्र का वाचन अर्धमागधी या प्राकृत भाषा मे किया जाना नवयुवको को उससे विमुख करने सहायक ही होगा । अतएव, आज समस्त जैन समाज और उनके मनीपियो, साचायों, विचारको एवं शुभ-चिन्तको से मेरा यह हार्दिक आग्रह है कि वे जमाने के तकाजे या समय की मॉग से विमुख न होकर कल्पसूत्र को बोधगम्य बनाने की दिशा में ठोग एवं निश्चित कदम उठायें जिससे हम कल्याणकारी सूत्र को सर्वसाधारण के द्वारा सरलतापूर्वन हृदयगम किया जा सके। प्राचार्य श्रीमद् भद्रबाहु ने हम सभी पर जो असीम उपकार किया है और कल्पसूत्र जैसे महान् सूत्र एवं उसमे निहित धनमोल सन्देशो को प्रदान किया है उस महान् सूत्र को बोधगम्य बनाकर उनके उन दिव्य सन्देशो को जन-जन तक पहुँचा कर हम कुछ प्रश तक उस उपकार के ऋण से उऋण हो सकते है ।
SR No.538017
Book TitleAnekant 1964 Book 17 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1964
Total Pages310
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy