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________________ साहित्य-समीक्षा स्य द्वाद-पत्रिका जैनिज्म इन राजस्थान (राजस्थान में जैनधर्म) डा. मुदर्शनलाल जैन एम. ए. (फाइनल), कैलाशचन्द जैन एम. ए. डी. लिट. राजऋषी कालिज प्रकाशिकाः स्यावाद-प्रचारिणी सभा, श्री म्याद्वाद महाविद्या- अलवर, प्रकाशक गुलाबचन्द हीराचन्द दोशी, जीवराजग्रंथलय, भटनी, वाराणसी, सन १६६३ ई०, पृ. ११२ । माला, शोलापुर । पृष्ट सं. ३०४ मूल्य मजिल्द प्रतिका यह पत्रिका म्यादाद महाविद्यालय, वाराणसी के विद्या- ११) रुपया। थियों का प्रयास है। उन्होंने स्वयं सामग्री संकलित की है. प्रस्तुत पुस्तक का विषय उसके नाम से स्पष्ट है, इस और स्वयं सम्पादन किया है । इसमें संस्कृत और हिन्दी पुस्तक में राजस्थान में जैनधर्म का परिचय कराया गया है। के साथ अंग्रेजा, बंगला, मगठी, कन्नड़ और पालिभाषा और वहां स्थित जैन सांस्कृतिक स्थापत्य, मूर्तिकला, चित्रक भी लेम्ब निबद्ध हैं. यह एक अच्छी दृष्टि है। और कला, आदि पर अच्छा प्रकाश डाला गया है। साथ ही भी भरला होता यदि उनका अनुगद हिन्दी में दे दिया। राजस्थान के स्थानों का ऐतिहासिक परिचय देते हुए विभिन्न जाना । हिन्दी संस्कृत पत्रिकामों में भारतीय भाषानों की राज्यों के राजात्रों का निर्देश भी किया है। डा. साहब ने पनियो का परिचय कराना भर पर्याप्त होता है। भारतीय इसके संकलन करने में अच्छा परिश्रम किया है जिससे जान पीठ पत्रिका ने इस दिशा में कदम बढ़ाये हैं। पुस्तक उपदेय बन गई है। यद्यपि राजस्थान में जनशिक्षा क्षेत्र में काम करने वाले 'कानेज-मैगजीन्म में संस्कृति कसे अनेक प्राधार मौजूद हैं जो पूर्णतः प्रकाश पचित होंगे। यह पत्रिका भी नदनुरूप ही है । यदि इसमें में नहीं थ्रा पाये हैं। अनेक शास्त्र भडार से है। जिनका केवल म्यानाद विद्यालय के विद्यार्थियों और अध्यापकाक परिचय अभी नक भी ज्ञात नहीं हो सका है। और जिनक हा निबन्ध हान, ना उचित हो था । इस परिधि से बाहर अन्यषण की ओर शोधक विद्वानों की दृष्टि लगी हुई है। के विद्वानों के लेखों से पत्रिका का गौरव बढ़ा है, किन्तु राजस्थान में जैन संस्कृति खूब फली फूली, अनेक राज्यों में इयर शिवा संस्थानों में प्रचलित मान्यता का व्याघात भा उपका विस्तार रहा। श्वेताम्बर पाधुओं और दिगम्बर उभा । सम्पादन और लेग्बन क तंत्र में विद्यार्थी अग्याय भट्टारकों ने तथा विद्वानों ने राजस्थान के जैन शाम्य भंडारों काम यह ही इन पत्रिकाग्री का उहं श्य हाता है। में अनेक विषयों की प्राचीन प्रतियां उपलब्ध होती है. जहां तक विद्यार्थियों के द्वारा लंग्य, कहानी, कविना जो इतिहास की दृष्टि से अत्यन्त महत्वपूर्ण कहा जा सकती क लम्बन का सम्बन्ध है, इस पत्रिका का संकलन और है। डा० साहब ने राजन्थान के विविध भंदारों के अनेक मम्पादन उत्तम है । व जिम्म पथ पर बढ़ रहे हैं. प्राशाग्नद म्यनि स्कृष्टों का संक्षिप्त परिचय भी अंकित किया है । और है। अन्य सम्कृत विद्यालयों को इसका अनुकरण करना छ ग्रन्थों के नामादि भी बतलाये है। ऐसी प्रतियों का चाहिए। यदि कोई शिक्षा संस्था अपने विद्यार्थियों में लेग्वक उपयोग पाठभेद लेने में बहुत सहायक होता है। राजस्थान सम्पादक, या वका बनने की लगन उत्पका कर यकी. नो जन संस्कृति का केन्द्र रहा है वहां अनेक ग्रन्थ बने हैं। और उतना पर्याप्त है । लगन वाला म्वावलम्बन के साथ वदना कवि हुए हैं। जिन्होंने प्राकृत संस्कृत और राजस्थानी भाषा ही जायगा, यह विश्वास होना ही चाहिए । ए ग्राउन्ड के विपुल साहित्य की सृष्टि की गई है। जैन माधुनों के गर्क प्राव पजकेशनल माइकालोजी' के रयिता मि० रोम विहार ने जगह जगह जैनधर्म का प्रचार किया है अाज भी का ऐसा ही कम है। म्यानात महा विद्यालय अपनी राजस्थान में जैनधर्म का प्रचार मौजूद है। अन्त में पतिम्याद्वाद प्रचारणी सभा के द्वारा यह कार्य वर्षों में कर रहा हामिक नामों की सूची भी दे दी है जिससे ग्रन्य की उपहै। म्याहार-पत्रिका उसी का परिणाम है। हम म्वागत योगिना यद गई है। ऐसे सुन्दर प्रकाशनों के लिए सम्पादक संस्था संचालक और प्रकाशक दोनों ही धन्यवादहि हैं। -डा. प्रेम गागर - -परमानन्द जैन
SR No.538017
Book TitleAnekant 1964 Book 17 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1964
Total Pages310
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size16 MB
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